जब से शी जिनपिंग ने ’बेल्ट एंड रोड पहल’ शुरू की है, तब से अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए चीन ने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों मामलों में अपना दृष्टिकोण ’पश्चिमी आधिपत्य’ के विकल्प के रूप में रखना आरंभ कर दिया है। हाल ही में संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक बैठक में एक बार फिर स्वयं शामिल न होकर शी ने प्रतिनिधि उपराष्ट्रपति हान झेंग के जरिए चीन को सबसे बड़े विकासशील देश के रूप में, ’ग्लोबल साउथ’ का स्वाभाविक सदस्य साबित करने का प्रयत्न किया। एक तरह से देखा जाये तो यह कोशिश पश्चिम में अमेरिका को चुनौती देकर दक्षिणी दुनिया का सबसे प्रभावशाली देश बनने की है। यह विश्लेषण चीन के बदलते नजरिए पर

अप्रैल 2022 में शी द्वारा प्रस्तावित जीएसआई (ग्लोबल सिक्युरिटी इनिश्यटिव) घोषणापत्र नई विश्व व्यवस्था को अधिक व्यापक दृष्टि देने और उस पर चीनी प्रभाव को बढ़ाने का वैचारिक प्रयास था, जिसका  हाल के महीनों में शी और उनके राजनयिक बड़ी तत्परता से प्रचार-प्रसार करते नजर रहे हैं। जिस तरह जीएसआई का लक्ष्य वैश्विक शासन पर बातचीत का मार्गदर्शन करना बताया गया, उसी तरह जीडीआई  (ळसवइंस क्मअमसवचउमदज प्दपजपंजपअम ) का लक्ष्य वैश्विक विकास एजेंडे पर अंतरराष्ट्रीय बातचीत को चीनी संरक्षण के तहत रखना और अपने (कथित) चीनी सिद्धांतों से जोड़ना बताया जा रहा है। जीडीआई, जीएसआई जैसी पहल को चीनी नेता दुनिया की समस्याओं के लिए नया, अत्यंत आवश्यक और बेहतर समाधान बताते हैं।

2021 में बोआओ फोरम में वर्ल्ड इन चेंजविषय पर बोलते हुए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था कि विश्व मानवता इस वक्तचार कमियों का सामना कर रही है, एक - बढ़ती शासन कमी, दो - विश्वास की कमी, तीन - विकास की कमी और चार - शांति की कमी। बीजिंग के अनुसार, जब दुनिया को एक मजबूत और एकजुट वैश्विक नेतृत्व की सबसे अधिक आवश्यकता थी, पश्चिमी नेतृत्व वाली वैश्विक शासन प्रणाली ने इसे विफल कर दिया। चीनी स्रोत अपने संचार तंत्रों के माध्यम से अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों कीबेबसी की तस्वीरपेश करते हैं। उनके हिसाब से ये देश आंतरिक संकटों से ग्रस्त है फिर भी अपने आधिपत्य और अपनी 'अनुचित और अन्यायपूर्ण' वैश्विक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हर हाल में चीन के उदय को रोकने पर लगे है। चीन के विचार में वह विश्व के अधिकांश देशों को इस अनुचित और अन्यायपूर्ण व्यवस्था से मुक्ति दिला सकता है, अगर जीडीआई, जीएसआई के अनुसार देशों को चलने दिया जाये।

एक अधिनायकवाद की भूमिका में रिस्क उठाने को तैयार चीन 

राष्ट्रपति कार्यकाल की लगातार तीसरी बार पुष्टि होने के बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के हौसलों को पर लग गये और उन्होंने एक तरह से अमेरिका को सख्त अंदाज में चेतावनी दे दी कि अब चीन को दबाने की कोशिश करना बेकार है। शी का यह बयान पश्चिम के कट्टर विरोधी के रूप में सामने आया। निरंकुष चीन अब खुद को एक अधिनायकवाद के रूप में देखना चाह रहा है और इसके लिए वह किसी भी हद से गुजरने को तैयार है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के अनुसार शी जिनपिंग चाहते हैं कि पूरी दुनिया... खासकरग्लोबल साउथचीन के तर्क को, चीन की आवाज को, चीन के आर्थिक मॉडल को एक बड़ी शक्ति की तरह माने। अमेरिकी राष्ट्रपति भले ही इस बात पर तंज करे लेकिन  इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन के विकास मॉडल विश्व भर से नायाब और आश्चर्यजनक रूप से प्रशंसनीय है। विश्व भर के उद्योग बाजार में आमजन के लिए लेटेस्ट टेक्नालाजी के साथ कम कीमत पर पहुंचते चीनी उत्पाद और उनके व्यापारिक तौर-तरीकों ने विश्व के अधिकांष देशों को अपनी मुट्ठी में बंद कर रखा है। चीनी उत्पाद के आदी हो चुके देशों को कोविड के बाद चीन के हवाले से हुई समस्याओं से नकारात्मक परिस्थितियों से दो चार होना पड़ा। यहीं से चीन को विश्व भर में प्रबल विरोधी के रूप में संदर्भित किया जाने लगा। इस मामले में चीनी मामलों के विशेषज्ञ पॉल हेनल का कहना उचित है कि कोविड से बाहर आकर, चीन को एक अलग तरह से सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है, जिसमें चीन और अमेरिका की भूमिकाओं के बीच एक बड़े अंतर को दिखाना भी है।

बावजूद इसके, पश्चिमी देशों के खिलाफ खड़े चीन ने अपने तेवर में किसी भी तरह का बदलाव लाने की चेष्टा तक नहीं की। इन देशों के निंदनीय बयानबाजी के बावजूद वह हांगकांग, शिनजियांग और साउथ चायना सी में अपनी आक्रामकता को जारी रखेे रहा। इन जगहों पर मिली सफलता ने शी जिनपिंग कीे काफी हौसलाअफजाई कर दी। कुछ मामलों में तो चीन को उन कुछ विकासशील देशों का भी समर्थन भी हासिल हुआ है, जो अमेरिका के खिलाफ रहे। शी जिनपिंग की उल्लेखनीय कामयाबी यही नजर जाती है कि शिनजियांग में उइगर मुस्लिमों के मानवाधिकार के मुद्दे पर एक भी मुस्लिम देश चीन के खिलाफ नहीं हुआ। संभवतः ये चीन की जबरदस्त कूटनीतिक कोशिशों का ही असर था कि मुस्लिम-बहुसंख्यक देशों में चीन की आक्रामकता को लेकर चुप्पी छाई रही। यहां तक कि सऊदी अरब के साथ-साथ ईरान ने भी शी जिनपिंग के लिए रेड कार्पेट बिछा देने में देर नहीं की। पॉल हेनल के अनुसार शी जिनपिंग मानते हैं चीन के पास एक प्रमुख शक्ति होने और दुनिया में अपने प्रभाव को बढ़ाने का एक अपना अलग तरीका है जबकि अमेरिका की भूमिका सुरक्षा केन्द्रित रही है, जो उनकी सेनाओं का के भरोसे है। हेनल का मानना है कि अब वैश्विक भूमिका निभाने के लिए चीन जोखिम भी उठाने को तैयार है। चूंकि अतीत में भी शी जिनपिंग अपनी राजनीति यात्रा में कई मुश्किल भरे दौर से गुजरे हैं, तो इस मामले में भी वेरिस्कउठाने के प्रति किसी की भी अपेक्षा कहीं अधिक सहिष्णु नजर आते हैं।

अपने बदलते तेवर के लिए स्वंय जिम्मेदार है चीन

दक्षिण एशिया पर अपनी सत्ता काबिज करने पर आमादा चीन का शत्रुतापूर्ण व्यवहार उसके अड़ोस-पड़ोस को उस पर भरोसा खोने पर मजबूर कर रहा जिसमें भारत सर्वोपरि है। भारत का रणनीतिक तौर पर बढ़ती अमेरिकी निकटता चीन को यूं भी नागवार गुजर रही, फिर आपसी सीमा-विवाद के मामले, हिंद महासागर में चीन के बढ़ते दबदबे पर भारत का ऐतराज, अक्साई चिन लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश के हिस्से पर भारत की दावेदारी जताना उसके लिए असहनीय हो रहे। ये घटनाक्रम जहां चीन को भारत के प्रति आक्रामक रूख को बढ़ावा दे रहे वहींे पड़ोसी देशों पाकिस्तान और नेपाल को चीनी समर्थन का डोज भारत के लेकर नफरत की आग भड़का रहा है। भारत के प्रति हालिया बदलता नेपाली व्यवहार भी चीनी समर्थन के आश्वासन से समर्थित है।

कोरोना वायरस की वजह से चीन के खिलाफ हुई लामबंदी ने उसे अपनी असुरक्षा का अहसास हुआ। यहां तक कि इसकी उत्पत्ति और प्रसार को लेकर बरती गई लापरवाही और अपारदर्शी होने के लिए चीन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दोषी ठहराये जाने की स्थिति में अपने ही लोगों को अपनी शक्ति का अहसास कराने के लिए आक्रामक प्रतिक्रिया देनी पड़ी। फिर घरेलू मामलों बेरोजगारी, सुरक्षा व्यवस्था, आपदा, लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, अधिकारियों की संदेहात्मक गतिविधियां, कानूनों का पुर्नगठन जैसे मामलों के बीच अंर्तराश्टीय स्तर पर अपनी साख बनाये रखने की चिंता ने चीनी राजनीति को दुनिया के सामने उसके अराजक स्वरूप में रख दिया। हाल के हफ्तों या कह लें पिछले कुछ महीनों में ताइवान, वियतनाम, फिलीपींस, इंडोनेशिया  जापान के प्रति उसके शत्रुतापूर्ण रवैये एवं हांगकांग, शिनजियांग, साउथ चायना सी में अपनी आक्रामकता को बनाये रखकर चीन ने स्वंय के लिए नई समस्याएं पैदा कर दी।

यूरोप में पैर जमाने की शी जिनपिंग की अभी तक की सारी कोशिशें नाकाम उन्हें बैचेन कर रही। दूसरी तरफ अपने खिलाफ खड़े होने वाले दक्षिण कोरिया, जापान, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसे देशों  का गठबंधन मजबूत होते देख, जिसका नेतृत्व निश्चित तौर पर अमेरिका के पास होगा, चीन आने वाली गंभीर चुनौती से भी बौखला रहा है। वैसे भी संयुक्त राज्य अमेरिका से चीन का भूराजनीतिक प्रतिद्विंद्वता जगजाहिर है। अमेरिका के साथ बिगड़ते संबंधों ने ही चीन को उसे पछाड स्वंय महाशक्ति बनने की चाह को हवा दे दी। ये सपना देखने वाले दो और देशों, रूस और उत्तरी कोरिया से दोस्ताना व्यवहार रख चीन ने जहां अपनी ताकत को बढ़ता दिखाया। एक तरह से देखा जाये तो चीन और रूस के नेता संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बदलने की राह पर चल पड़े हैं। इस रणनैतिक प्रयास में में शी पुतिन को याद दिलाना नहीं भूलते कि चीन के पास रूस से बेहतर कोई साझेदार नहीं है।

आलोचकों की राय में चीन को अनुमानों से परे चलने की जरूरत 

हैल ब्रांड्स, जिन्होंने 2015-16 में रणनीतिक योजना के लिए रक्षा सचिव के विशेष सहायक के रूप ओबामा प्रशासन में कार्य किया था, मानते है कि चीन के निकट भविष्य में और अधिक आक्रामक तरीके से कार्य करने की संभावना है। उनके अनुसार जैसे-जैसे चीन की अर्थव्यवस्था का संघर्ष बढेगा और भू-राजनीतिक परेशानियां बढ़ेगी, उसके लिए दुनिया की अग्रणी शक्ति के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका से आगे निकलना कठिन होगा। ब्रांड्स, डेंजर जोनः कमिंग कॉन्फ्लिक्ट विद चाइना के लेखक है और इस समय जॉन्स हॉपकिन्स स्कूल ऑफ एडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज में वैश्विक मामलों के प्रोफेसर हैं।

अटलांटिक काउंसिल के स्कोक्रॉफ्ट सेंटर फॉर स्ट्रैटेजी एंड सिक्योरिटी के उपाध्यक्ष और वरिष्ठ निदेशक मैथ्यू क्रोएनिग कहते है वास्तविकता को देखने की असमर्थता चीनी राष्ट्रपति को उसी तरह के गलत अनुमान की ओर ले जा सकती है जो सोच रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को ले गई कि वह आसानी से यूक्रेन पर कब्ज़ा कर सकते हैं। रिटर्न ऑफ ग्रेट पावर राइवलरीके लेखक क्रोएनिग के अनुसार शी यह नहीं समझ रहे कि बीजिंग की अर्थव्यवस्था गिरावट में है। वे सोचते है कि वह चीन को मजबूत बना रहे हैं, और यह अमेरिका है जो गिरावट में है।

22 मार्च, 2023 को रूस की तीन दिवसीय यात्रा के अंत की समाप्ति पर चीनी राष्ट्रपति ने  रूसी राष्टपति ब्लादीमिर पुतिन से हाथ मिलाते हुए कहा था अभी जो बदलाव हो रहे हैं -हमने 100 वर्षों में वैसा नहीं देखा है और हम ही है जो साथ मिलकर इन्हें कर रहे हैं। इसके जबाव में रूसी राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन ने अपनी सहमति दर्ज की। एलेन फ्रैचोन अपने एक कालम में इन वाक्यों का एक गहरी समझ के तहत इसे, ’कोई सीमा नहींवाली दोस्ती कहते है, जो एक ही राजनीतिक लक्ष्य पर आधारित है और वह है विश्व मंच पर पश्चिम के प्रभाव को कम करना। फ्रांस इस वैचारिक सुविधा की शादी की ताकत को कम करके आंकता है तो चीन विशेषज्ञ ऐलिस एकमैन वेबसाइटले ग्रैंड कॉन्टिनेंटके साथ एक साक्षात्कार में मानती है कि चूंकि दोनों ही विचारधारा में विश्वास नहीं करते हैं, या कह लें अपने आप पर विश्वास नहीं करते हैं।

निष्कर्ष

निरंकुश शासन वाले इन देशों से गहराती दोस्ती ने चीन और उन देशों के दरम्यान एक संदेहास्पद लकीर खींच दी हैए जो विश्व शांति की चाह रखते है और अपनी देश की राजनीति तक सीमित रहना श्रेयकर समझते है। लोकतंत्र की विचारधारा से दूर और पहले अपने ही घर में एकछत्र राज की चाह रखने वाले निरंकुश शी जिनपिंग अब अपनी शर्तो, अपने नियमों के तहत एशियाई महाशक्ति बनने का ख्वाब देख रहे है और वह भी अपने आस-पास के पड़ोसियों के साथ असद्भावना की भावना के साथ।  विकास और व्यापारिक नजरिए से दुनिया पर राज करने वाले चीनी नेता विश्वगुरू बनने और विश्वनेता के अंतर को समझने में भूल कर रहे है। उनके लिए ये भूल उनकेशिया का सत्ताधारी बनने के अनुमानों के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगी।

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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