चीन के शीर्ष नेता शी जिनपिंग ने न्यूयॉर्क के डेमोक्रेटिक सीनेटर चक शूमर से चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच ’शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ की आशा व्यक्त कर यह उम्मीद जगा दी कि यह दोनों देश निकट भविष्य में साथ खड़े हो सकते है। देानों देशों के बीच 2022-23 के उतार-चढ़ाव भरे संबंधों ने विश्व राजनीति को झकझोर दिया। चीन की उत्तर कोरिया-रूस-पाकिस्तान-नेपाल से बढ़ती नजदीकी ने अमेरिका के साथ-साथ भारत को भी सतर्क कर दिया। अमेरिका दक्षिण एशियाई बादशाहत के तौर पर चीन के विकल्प के तौर पर भारत की पीठ ठोकने लगा, तो अपने पडोसियों की हरकतों से बेज़ार भारत को भी अमेरिका से उम्मीदें बढ़ गई। लेकिन अचानक संयुक्त राष्ट संघ के लिए षी के बदले सौहार्दपूर्ण लहजे ने सोचने पर मजबूर किया कि इन संबंधों के मेल-मिलाप से भविष्य में भारत की स्थिति चितंनीय हो सकती है। एक विश्लेषण
यूं तो चीन की करिश्माई रणनीति में घरेलू उद्देश्यों को पूरा करना सबसे प्रमुख है, जैसे सत्ता पर सीसीपी की पकड़ को मजबूत करना और चीन के उन हिस्सों को पुनः प्राप्त करना जो देश के कमजोर होने पर उनसे छीन लिए गए थे। इसमें वे बड़े लक्ष्य भी शामिल हैं, जिसमें वैश्विक स्तर पर अमेरिकी शक्ति का मुकाबला करना भी एक है। इधर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा चीन के साथ चल रहे व्यापारिक युद्ध को रणनीतिक प्रतिस्पर्धा के रूप में देखा जाता रहा है। कोविड के कारणों के पीछे चीनी संलिप्तता और निगरानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चीनी गुब्बारे की खोज के बाद से ही अमेरिकी राजनीति ने चीन को अपने कड़े अंदाज से रूबरू करवाया। इसमें चीन के खिलाफ ताइवान और भारत के प्रति अपनी सहानुभूति का प्रदर्शन करना भी शामिल है। एक लंबे अरसे से आपसी मेल-मुलाकातों को टालते इन दोनों नेताओं को मिलाने की नाकाम कोशिश ने राजनैतिक अफवाहों के बाज़ार को गरमाये रखा है। अब चीनी शीर्ष नेता शी जिनपिंग के नवंबर में सैन फ्रांसिस्को में एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग सभा में भाग लेने पर संभवत इन दोनों के बीच जमी बर्फ पिघल जाये, ऐसा विशेषज्ञों का मानना है। हालांकि मध्य पूर्व एशिया के ताजा हालातों को देखते हुए इस दरार के गहराने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। चीन-अमेरिका संबध को मजबूत करने के पीछे 1,000 कारण बताने वाले शी के इस ह्दय परिवर्तन के पीछे निष्चित ही 2023 में उनके कईक विवादास्पद कदम और कूटनैतिक फैसले है, जिन्होंने उन्हें विश्व के समझ उनको एक ’दंभी और अहमक’ नेता के रूप में रख दिया। लेकिन इससे इतर सत्ता में एकाधिकार खोने से लेकर अपनी सुरक्षा को लेकर संशकित चीनी नेता को संभवत संयुक्त राज्य अमेरिका से संबंध सुधारने में ही अपना हित श्रेयकर लगने लगा है। वरना 2020 से अमेरिका के खिलाफ कमर कसे शी से इस तरह के नरम रूख की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
चीनी गणराज्य की सफलता काफी हद तक अमेरिकी सफलता पर निर्भर
चीन भले ही आज अमेरिका को चुनौती दे रहा हो लेकिन वह भी यह अच्छी तरह से जानता है कि पीआरसी (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) को अभी सयुंक्त राष्ट्र अमेरिका के साथ ही चलने की आवश्यकता है। यकीनन चीन कुछ क्षेत्रों में विकास और प्रभुत्व में बेहतर स्थिति मे अग्रसरित है, फिर भी उसका विकास और प्रभुत्व अभी भी अमेरिकी उत्पादों पर निर्भर है। चीन विदेशी बौद्धिक संपदा के उपयोग के लिए प्रति वर्ष $21 बिलियन डॉलर का भुगतान करता है, और इसमें से $8 बिलियन से अधिक अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका को दे देता है। जबकि इसके विपरीत, चीन अपनी बौद्धिक संपदा का उपयोग करने वाले देशों से प्रति वर्ष 900 मिलियन डॉलर से कम कमाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका पीआरसी का छठा सबसे बड़ा आयातक है, जिसके पास वाणिज्यिक विमान, सोयाबीन, ऑटोमोबाइल और सेमीकंडक्टर जैसे लगभग 110 बिलियन डॉलर मूल्य के सामान हैं। जिन दो चीज़ों में पीआरसी संयुक्त राज्य अमेरिका पर बहुत अधिक निर्भर है, वे हैं सोयाबीन और सेमीकंडक्टर। चीनी व्यापार विदेशी इनपुट पर बहुत अधिक निर्भर है, खास तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका पर।
प्रतिवर्ष चीन लगभग 300 अरब डॉलर के अर्धचालकों का आयात करता है, जिसमें अमेरिकी सेमीकंडक्टर कंपनियों की लगभग 25 प्रतिशत बिक्री चीनी बाजार में होती है। यद्यपि चीनी जनवादी गणराज्य प्रौद्योगिकी स्वतंत्रता पर अधिक जोर देता है, फिर भी वैश्विक एकाधिकरार जताने से पीछे हैं और संभवतः बने रहेंगे। चीनी जीपीयू कंपनियां हैं, लेकिन उनकी बाजार हिस्सेदारी अनिवार्य रूप से शून्य है। ताइवान की टीएसएमसी तैंतीस वर्षों से फाउंड्री क्षेत्र में वैश्विक कब्जाा जमाये रखती आ रही है। जबकि इसकी प्रमुख चीनी प्रतिस्पर्धी, एसएमआईसी, बीस वर्षों के निवेश के बावजूद चार से पांच साल पीछे है। कुल मिलाकर, दसियों अरब डॉलर खर्च करने के बावजूद पीआरसी की घरेलू सेमीकंडक्टर दुविधा में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ है और 2014 के बाद से लगभग अपरिवर्तित बनी हुई है। चीन दुनिया का सबसे बड़ा सोयाबीन और मांस उपभोक्ता का निर्यातक भी है। सोयाबीन को न केवल सीधे भोजन के रूप में बनाया जाता है, बल्कि इसका अधिकांशतः उपयोग अपने पशुधन उद्योग के लिए पशु चारे के रूप में किया जाता है। अपनी सीमित कृषि योग्य भूमि के कारण, पीआरसी अपने मांस उद्योग को ईंधन देने के लिए कृषि आयात पर निर्भर है। अमेरिकी सोयाबीन का आयात सालाना 8 अरब डॉलर से अधिक है और यह ब्राजील के बाद दूसरे स्थान पर है। यह प्रमुख आयात, हालांकि वित्तीय रूप से अन्य उत्पादों और क्षेत्रों की तुलना में छोटा है, बड़े पीआरसी घरेलू पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण है, और यह एक ऐसा आयात है जिसे संयुक्त राज्य अमेरिका के बिना प्रतिस्थापित करना चीन के लिए कठिन होगा।
अमेरिका-चीन संबंध सुधार से भारत के पड़ोसी मुल्कों से तल्खी कम होने के आसार नहीं
यूं तो भारत के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका उसके एक प्रबल भागीदार की भूमिका में खड़ा नजर आ रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति, इंडो-पैसिफिक रणनीति और हाल ही में चीन के प्रति दृष्टिकोण को रेखांकित करती संयुक्त राज्य अमेरिका की रणनीति दोनों राष्ट्रों के बीच संबंधों की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति को उजागर कर रही हैं। चीन से मुकाबला के चलते, संयुक्त राज्य अमेरिका ने एशियाई मठाधीशी के प्रमुख के तौर पर भारत की पीठ ठोकना आरंभ कर दिया। बदले में चीन ने भारत के सबसे बड़े विवादास्पद पड़ोसी, पाकिस्तान के साथ विशेष रूप से घनिष्ठ संबंध साझा कर लिये। हालांकि भारत के आर्थिक संबंध चीन के पक्ष में झुके हुए हैं, जो सैन्य रूप से भी मजबूत है। फिर भी पड़ोस में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए, भारत द्विपक्षीय और बहुपक्षीय क्षेत्रीय सहयोग तंत्र के माध्यम से स्वयं अपनी उपस्थिति का विस्तार करने का प्रयास लगातार किये जा रहा है। अपने इन प्रयोजनों का हित साधने में अमेरिका के सकारात्मक प्रोत्साहन भरे बयान उसके लिए मरहम का तो चीन के लिए जख़्म का काम कर रहे है।
2020 में लददाख मामले में अमेरिकन हस्तकक्षेप करने पर चीन ने अमेरिका से नाराज हुआ था। उस वक्त उसने उनको स्पष्ट कर दिया था कि दोनों देश अपने आपसी विवाद को संवाद और विचार-विमर्श के ज़रिए सुलझाने के लिए पूर्णतया इच्छुक हैं। इस मामले में अमेरिका अपने राय मशविरा न दें। बावजूद इसके कुछ अमेरिकी अधिकारियों ने दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण बयानों से दरार पैदा करने की कोशिश की है, जो शर्मनाक है। चीन इससे पहले भी लद्दाख सीमा विवाद के मुद्दे पर अमेरिकी सरकार को घेरता रहा है। चीन मामलों की जानकार अलका आचार्य ने उस वक्त इस प्रतिक्रिया को स्वाभाविक बताया था और कहा था कि चीन ये बिलकुल नहीं चाहेगा कि इस मामले में कोई तीसरा पक्ष किसी तरह की प्रतिक्रिया दें। बीबीसी को दिये अपने एक साक्षात्कार में शिव नाडर यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे प्रोफ़ेसर जैकब भारत-चीन रिश्ते का भविष्य का आकलन करते हुए कहते है कि निकट भविष्य में उन्हें भारत और चीन के रिश्तों में सुधार की कोई उम्मीद नहीं है। जब तक एलएसी ख़ासकर पूर्व लद्दाख़ में जो कुछ हुआ वो पलटा नहीं जाता है, संबंधों में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। आगे भी कठिनाई आएगी और झड़पें होगीं। दोनों तरफ़ से जान का नुक़सान भी होता रहेगा। यह दोनों देशों के बीच संरचनात्मक समस्या है। दोनों देशों के बीच प्रतिद्वंद्विता जारी है इसलिए यह आसानी से हल होने वाला नहीं है।
भारत के मुकाबले चीन अपने राजनैतिक-कूटनैतिक मामलों को लेकर पड़ोसियों के साथ संबंध सुधारने को लेकर काफ़ी अधिक सक्रिय रहा है। पाकिस्तान के साथ मिल कर उसने रेल, सड़क और बंदरगाहों का नेटवर्क बनाना शुरू किया है जिसके ज़रिए चीन के शिनजियांग प्रांत को हिंद महासागर से जोड़ा जा सकेगा। अपने स्वायत्त तिब्बत से नेपाल की राजधानी काठमांडू तक रेल मार्ग बनाने को लेकर वह नेपाल के भीतरी विकास कार्यो में सहभागी का रोल निभा रहा है। नेपाल, चीन और भारत के बीच घिरा हुआ एक ऐसा पड़ोसी देश है जिसकी आवष्यकता भारत-चीन दोनों देशों को है। भारत इस मामले में अपने सहयोग पूर्ण प्रदर्शन में चीन से पीछे चल रहा जबकि चीन ने पिछले कुछ समय से नेपाल के विकास को लेकर जो उनसे सहानुभूति पूर्ण राजनयिक गठबंधन को मजबूत कर रहा है। चीन के साथ से नेपाल का रवैया भारत के प्रति बेरूखा और आक्रामक हो रहा। भारत के खिलाफ उसके पड़ोसियों को उकसावे से आहत यह वजह भी भारत चीन के बीच टकराव का एक मुख्य कारण बन रही है। इसका जबाव भारत चीन के खिलाफ जापान, ताइवान, विएतनाम का साथ घनिष्ठ संबंध बना कर, कर रहा है।
निष्कर्ष
बहरहाल, अमेरिका द्वारा चीन पर निगरानी राष्ट्रपति ओबामा के समय से शुरू हुई। राष्ट्रपति ट्रम्प तक आते-आते ये तीखी बयानबाजी में बदल गई, जिसकी आगे भी बने रखने की संभावना है। जो बाइडेन, संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति अब फिलहाल इस नीति को बदलने की स्थिति में नहीं दिख रहे है। दोनों देश अपने अपने दृष्टिकोण की भाषा को बदल सकते हैं और संभवतः जलवायु परिवर्तन जैसे एकरूपता के मुद्दों पर साथ हो सकते हैं, लेकिन कोई भी बात इस तथ्य को समाप्त नहीं कर सकता कि चीन निकट और दीर्घकालिक भविष्य के लिए अमेरिका का रणनीतिक प्रतियोगी है। इसलिए फिलहाल अमेरिका को चीन को एक बढती हुई सैन्य, राजनयिक और आर्थिक चुनौती देने वाले देश के रूप में ही देखना होगा। जैसा कि नेशनल इंटरेस्ट में जिमी चिएन अपने एक आलेख में कहते है -चीन उस राह पर चल रहा है जिसका अंत त्रासदी में हो सकता है। अचानक तेजी से हुई वृद्धि गिरावट के खतरे का संकेत भी देती है। ऐसी स्थिति में अपने आप को को दुश्मनों से घिरा पाकर अक्सर चरम शक्तियां आक्रामक और खतरनाक हो जाती है।
जहां तक भारत का सवाल है उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन को अभी अमेरिका से आगे निकलने के लिए एक लंबा संघर्ष करना है और यही मौका है जब समझदारी भरे राजनैतिक फैसलों और कूटनैतिक चालों से भारत अपनी स्थिति को बेहतर और मजबूत दिशा दे सकता है। इतिहास गवाह है अमेरिका सदैव से अप्रत्याशित गतिविधियों के साथ-साथ स्व-केन्द्रित रहा है। इसलिए अमेरिका पर पूर्ण भरोसा कर अपने पड़ोसी के साथ तनाव बढ़ाना भारत के लिए मूर्खतापूर्ण व्यवहार होगा और इसका दूरगामी प्रभाव भारत के हित में नहीं होगा। हम अपने पड़ोसी के साथ युद्ध कर रह होगें और अमेरिका दूर बैठे संघर्ष से अप्रभावित सभी के साथ हथियार बेच से अपना लाभ उठायेगा, जो अभी वह गाजा पट्टी को लेकर चल रहे युद्ध में इसरायल को हथियार देकर कर रहा।
आज इराक अफगानिस्तान का हश्र किसके कारण है यह भारत को नहीं भूलना नहीं चाहिए।
Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.
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