चीन के राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो द्वारा इस वर्ष उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, 2022 में चीनी जनसंख्या 8,50,000 लोगों की कमी के साथ लगभग 1,411.75 मिलियन हो गई। बुजुर्ग होते चीन में युवा श्रम की कमी भविष्य के लिए चेतावनी का संकेत दे रही। 1961 के बाद ये पहली बार था जब चीन की आबादी में गिरावट आई।

पिछले कुछ सालों में चीनी सरकार द्वारा पहले जनसंख्या वृद्धि रोकने और फिर बढ़ाने के नजरिए से किये गये प्रयासों ने उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। बच्चो पैदा करने के जुर्माने के बाद बच्चो पैदा करने के लिए कई तरह की आकर्षित योजनाएं लागू करने वाली चीनी सरकार ने जन्म नियंत्रण प्रयासों ने चीन में जनसांख्यिकीय पिरामिड पर बुरा प्रभाव डाला। बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिए 1979 से प्रभाव में आई वन चाइल्ड पॉलिसी ने सांस्कृतिक-सामाजिक तौर पर बहुत भारी नुकसान किया। फिर बढ़ती उम्र की आबादी के नकारात्मक प्रभावों को रोकने के लिए, चीन सरकार 2015 में वन चाइल्ड पॉलिसी ख़त्म कर 2 बच्चों की नीति ले आई।  जनसंख्या में तेजी से हो रहे गिरावट के नतीजों के बाद चीनी सरकार ने मई 2021 में एक बार फिर नई आकर्षक योजनाओं के साथ, तीन-बच्चे पैदा करने की बाध्यता लेकर चीनी नागरिकों के आगे खड़ी हो गई। लेकिन इससे भी जनसंख्या वृद्धि में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि होती नहीं दिख सकी। वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रोसपेक्ट्स-2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल भारत की आबादी 141.2 करोड़ थी, जबकि चीन की जनसंख्या 142.6 करोड़ आंकी गई। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की आबादी अब 142.86 करोड़ तो चीन की 142.57 करोड़ हो गई है। 1950 से आबादी का हिसाब-किताब रख रहे संयुक्त राष्ट्र की लिस्ट में पहली बार भारत जनसंख्या के मामले में पहले नंबर पर है।

 

अपनी ही नीतियों के शिकंजे में घिर गया है चीन

समाचार एजेंसी रॉयटर्स 2021 की  अपनी एक रिपोर्ट में चीनी प्रशासन के हवाले से लिखा है कि आने वाले पाँच से छह वर्षों में चीन में बच्चे पैदा करने को लेकर कोई भी प्रतिबंध नहीं रह जायेगा। कुछ चीनी शोधकर्ताओं का मानना है कि चीन में जनसंख्या नियंत्रण से जुड़ी सभी नीतियों को तत्काल प्रभाव से समाप्त कर देना अब बहुत जरूरी हो गया है और

सरकार को ऐसे प्रतिबंध हटाने में किसी तरह का संकोच करने की ज़रूरत नहीं है। हालांकि यह भी सही है कि बच्चे ना पैदा करने की समस्या शहरों में ज्यादा देखी गई है, गाँवों में ऐसा नहीं है। चीन के कुछ नीति-निर्माताओं को नई नीतियों के तहत गाँवों में जनसंख्या विस्फोट का ख़तरा भी लगता है। उनके अनुसार इसकी वजह से ग्रामीण क्षेत्र में बेरोज़गारी और गरीबी बढ़ने की संभावना बढ़ जायेगीं। कुछ चीनी नागरिक बच्चों की चाह रखते है लेकिन परिवार के सीमित बजट के चलते ये कदम उठाने से डरते है। कोविड के बाद के हालात ने तो परिवारों के लिए काफी मुश्किलें खड़ी कर दी है। कुछ चीनी नागरिको की राय में बच्चों की शिक्षा और उनके स्वास्थ्य के लिए सरकार कुछ अपनी ज़िम्मेदारी ले ले तो परिवारों का मानसिक बोझ कम हो और वो इस बारे में अपनी राय बना सके।

दरअसल जनसांख्यिकीय पिरामिड को लेकर बदलती नीतियों नेहरी चीनी नागरिकों को बच्चों की पैदाइश को लेकर उदासीन बना दिया। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर की प्रोफ़ेसर डॉक्टर मु झेंग कहती हैं कि ऐसी स्थितियों ने शादी का बाज़ार बिगाड दिया है, ख़ासकर उन लोगों के लिए परेशानी बढ़ी है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं। चीन में 2013 से विवाहों के रजिस्ट्रेशन में हर साल गिरावट रही है। 2006 के बाद हर वर्ष तलाक की संख्या बढ़ी है। इधर, अकेले लोगों ने अपनी आजादी का आनंद उठाना शुरू कर दिया है। चीन में 11 नवंबर को सिंगल्स डे मनाते हैं। 2018 में 30.8 अरब डॉलर की बिक्री के साथ यह दुनिया का सबसे बड़ा शॉपिंग डे बन गया है। बच्चे पैदा करने की क्षमता में तेज़ी से आई इस गिरावट के पीछे एक कारण चीन में औरतों और मर्दों की संख्या में असंतुलन भी है। चीन की आबादी में उम्र के कई दौर वालों के बीच आज हर दस महिला पर 11 पुरुष हैं। कोविड के बाद से कई चीनी माता-पिता ऐसे हैं जो दूसरे या तीसरे बच्चे को जन्म देने में अनिच्छुक नजर आये। अधिक बच्चे पैदा करने के सबसे प्रमुख कारणों में बढ़ती लागत के साथ-साथ बच्चों की देखभाल में लगने वाली लागत, काम का बढ़ता दबाव, आत्म-बोध और व्यक्तिवाद की ओर बढ़ती प्रवृत्ति और बदलते सामाजिक व्यवहार ने लोगों को इस ओर से लगभग उदासीन कर दिया। प्रजनन दर में गिरावट और कोविड-19 महामारी के चलते मौतों की संख्या में इज़ाफ़े के कारण भी चीन की कुल आबादी में कमी आई है। फिर भी कुल विश्व जनसंख्या की तुलना में अभी भी चीन की कुल वैश्विक जनसंख्या में लगभग 18 प्रतिशत की हिस्सेदारी रही।

 

घटती-बढ़ती जनसंख्या का असर अर्थव्यवस्था पर भी होता है 

घरेलू जनसांख्यिकी विशेषज्ञों को लगता है चीन अमीर बनने से पहले बूढ़ा हो जाएगा, जिससे राजस्व में गिरावट और स्वास्थ्य और कल्याण लागत में वृद्धि के कारण सरकारी ऋण बढ़ने से अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हो जाएगी। यू भी इस वर्ष चीन विश्व जीडीपी में अपनी गिरावट के जख्म से उबरने की कोशिश में लगा है। बुजुर्ग होती जनसंख्या उसके लिए आने वाले वक्त का कमजोर हिस्सा बन के उभरेगी। विश्व की नंबर 2 अर्थव्यवस्था वाले चीन से भारत फिलहाल पीछे है और इस अंतर की एक बड़ी वजह  भारत में रोजगार में लिंग अंतर का होना है। भारत और चीन में कार्यरत 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के पुरुषों की हिस्सेदारी 2017 में क्रमशः 76.4 और 73.5 देखी गई। महिलाओं की ओर से देखे तो ये संख्या भारत के लिए 25.9 और चीन के लिए 60.4 थी। भेदभाव के बावजूद  चीन की  महिलाएं शिक्षा और रोजगार के मामले में पुरुषों को पीछे छोड़ रही हैं। जीडीपी में महिलाओं की हिस्सेदारी 41 है। दुनिया की 80 महिला अरबपति चीनी नागरिक है। भारत में महिलाओं की कम और गिरती भागीदारी का कारण जर्मनी के गोटिंगेन विश्वविद्यालय में विकास अर्थशास्त्र के प्रोफेसर स्टीफ़न क्लासेन का एक आर्थिक शोध इस पर प्रकाश डालता है, जैसे कि पारिवारिक आय में वृद्धि के साथ महिलाओं का कार्यबल से स्वेच्छा से बाहर निकलना, कार्यस्थल के घर से दूर जाने के कारण काम और पारिवारिक कर्तव्यों की बढ़ती असंगतता। मध्यम स्तर की शिक्षा वाली महिलाओं के लिए नौकरियों का सृजन होना भी इसका एक मूल कारक है। जबकि चीन और बांग्लादेष में यह सुविधाजनक ढंग से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।  

सिंगापुर स्थित चीनी पत्रकार सन शी के विचार में भारत चीन की तुलना में अधिक युवा श्रमिक भंडार हैं, लेकिन उनका शैक्षिक और कौशल स्तर वास्तव में चीनी श्रमिकों की तुलना में कम है। इस साइबर युग में प्रौद्योगिकी शाारीरिक श्रम से अधिक महत्वपूर्ण है, और चीन प्रौद्योगिकी इनोवेशन में बेहतर है। उनके अनुसार समान लोकतंत्र के कारण पश्चिम चीन से अधिक भारत को तरजीह दे रहा है। एक तरह से देखा जाये तो वह चीन को संतुलित करने के लिए भारत का इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन इतिहास, संस्कृति और अर्थव्यवस्था के लिहाज से भारत कोई नया चीन नहीं है। आर्थिक विकास के संबंध में, चीन एक मज़बूत नेतृत्व, अपनी दीर्घकालिक योजनाओं और उनके प्रभावी कार्यान्वयन से मजबूत स्थिति में रहता है। लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनमिक्स के सोशल पॉलिसी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर शुआंग चेन बीबीसी को कहती हैं कि कि चीन की आबादी में गिरावट को बिल्कुल अलग अंदाज में देखते है। उनकी सोच में यह गिरावट जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से फ़ायदेमंद हो सकती है। 2022 में पर्यावरण में दुनिया के कुल कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन में चीन का योगदान 27 प्रतिशत था और इस समय, दुनिया के आधे से ज़्यादा कोयले से चलने वाले नए बिजलीघर अकेले चीन बना रहा है। लेकिन विस्कॉन्सिन-मेडिसन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉक्टर यी फ़ुक्सियान मानते है कि चीन की जनसंख्या की गिरावट का असर दुनिया के दूसरे हिस्सों पर बुरी तरह से पड़ सकता है। चूंकि दुनिया के अधिकतर उद्योग चीन पर निर्भर हैं। जनसंख्या में गिरावट का असर इस मामले में बहुत बड़ा बन सकता है। हॉन्गकॉन्ग स्थित पेंशन फंड स्टर्लिंग फाइनेंस लिमिटेड के चेयरमैन स्टुअर्ट लैकी के अनुसार यह भविष्य में चीन के लिए सबसे बड़ी समस्या होगी। यदि ऐसी ही स्थिति रही तब चीन की आबादी 2029 में 1 अरब 44 करोड़ के चरम पर पहुंचकर गिरावट के दौर में प्रवेश करेगी। चीनी सोशल साइंस अकादमी की जनवरी में जारी रिपोर्ट का कहना है, देश नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि के दौर में प्रवेश करेगा। 2065 में आबादी एक बार फिर 1990 जैसी हो जाएगी जिससे घरेलू मांग में गिरावट आएगी और आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ेगी। यह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी खबर नहीं है।

 

जनसंख्या श्रमशक्ति के मामले में अब भारत चीन से आगे 

भारत की आबादी अभी लगातार बढ़ती रहेगी। 2022 में 1.417 अरब से बढ़कर 2030 में भारत की आबादी, 1.515 अरब पहुंच जाएगी। मोटे तौर पर इसके दो बड़े कारण हैं भारत में प्रजनन दर ऊंचे स्तर पर बनी हुई है और दूसरे इलाज की सुविधाएं बेहतर होने से मृत्यु दर में गिरावट आई है। ऐसी स्थिति में बढ़ती जनशक्ति का लाभ के फायदे जहां भारत के हक में रहेगे वहीं घटती जनसंख्या चीन को बाहरी श्रमशक्ति पर चलने को मजबूर करेगी। दोनों देशों के बीच सबसे बड़ा अंतर युवाशक्ति का है। चीन की तुलना में भारत कहीं ज्यादा युवा श्रम से भरपूर है। भारत में 10 से 24 साल की उम्र की आबादी 26 फीसदी की है, जबकि चीन में इस उम्र की 18 फीसदी आबादी ही रहती है। दूसरी ओर भारत में 65 साल से ज्यादा उम्र की आबादी 7 फीसदी है. जबकि चीन में 65 साल से ज्यादा उम्र की आबादी की संख्या 14 फीसदी है। हालांकि भारत में भी हाल फिलहाल में बुजुर्ग तादाद में बढ़ोत्तरी देखी गई है। औसत आयु के मामले में भारत के मुकाबले चीन बेहतर स्थिति में है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीनी पुरुषों की औसत उम्र 76 साल तो महिलाओं की 82 साल है, जबकि इसके मुकाबले भारतीय पुरुषों की औसत आयु 71 साल और महिलाओं की 74 साल है। हालांकि शिक्षित लोगों के मामले में चीन भारत से अधिक साक्षर है। चीन की 135.56 करोड़ आबादी शिक्षित है, जबकि भारत की 76.36 करोड़ आबादी ही पढ़ी-लिखी है। भारत की 34 से ज्यादा आबादी अभी भी अशिक्षित ही है। जबकि, चीन की महज ढाई फीसदी आबादी ही ऐसी है, जो पढ़ी-लिखी नहीं है। भारतीय मूल के राणा मित्तर ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में आधुनिक चीन के इतिहास और राजनीति के प्रोफ़ेसर के अनुसार भारत की जनसंख्या चीन के मुकाबले अधिक युवा है, इसलिए भारत को अपनी जनसांख्यिकी से पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए शिक्षा पर अधिक निवेश करने की आवश्यकता है।

 

निष्कर्ष

ये भी सोचने वाली बात है कि अपनी गलत नीतियों के सहारे चीनी सरकार अपनी बुजुर्ग हो रहे नागरिकों के कमजोर कंधों के सहारे विश्व महाशक्ति बनने का सपना देख रही। उलटे परिणामों से आहत चीनी सरकार एक बार फिर चीनी नागरिकों को अपने नये जाल में उलझाना चाहती है। संभवतः उसे यह नहीं भूलना चाहिये 21वी सदी की ये पीढ़ी अपने पुरातनपंथी सोच से स्वत्रंत रहती है। उच्च शिक्षा और संचार साधन के जरिए दुनिया के किसी भी कोने पहुंच अपनी बात रखने की हिम्मत रखती है। अपने सोच-सरोकारों को अहमियत देती ये पीढ़ी सरकारी कानूनों की ज़द से खुद को अलग रखती है। विशेषज्ञों के कहना है कि 2050 तक 33 करोड़ चीनियों की आयु 65 वर्ष से अधिक हो जाएगी। चीनी सरकार को साल दर साल बदलते नियमों को स्थिरता देने के अलावा नागरिको के भरोसे को जीतने लायक थिति बनानी होगी। इस सोच को जितनी जल्दी कार्यान्वित किया जा सके उतना चीन के लिए बेहतर होगा। ऐसा हो कि बुर्जुगियत की ओर बढ़ते चीन को युवा कंधों के सहारे के लिए दूसरे मुल्कों को देखने की जरूरत पड़ जाये!

 

Image Source: Xinhua

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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