चीन पानी पर नियंत्रण कर दक्षिण एशियाई देशों पर दबाव बनाना चाहता है, जिनमें भारत भी शामिल है। 2021 की शुरुआत से ही वह चीन भारत और नेपाल के त्रि-जंक्शन सीमा के उत्तर में कुछ किलोमीटर की दूरी पर माबजा ज़ंगबो नदी पर एक बांध का निर्माण कर रहा है। चीन इस बांध का उपयोग न केवल पानी को मोड़ने के लिए कर सकता है, बल्कि इसके जरिए पानी का भंडारण भी कर सकता है, जिससे मब्जा ज़ंगबो नदी पर निर्भर क्षेत्रों में पानी की कमी हो सकती है और नेपाल में घाघरा और करनाली जैसी नदियों में जल स्तर कम हो सकता है। एक नजर नदियों पर होती राजनीति परः-

इसी वर्ष जनवरी में इंटेल लैब के भू-स्थानिक खुफिया शोधकर्ता डेमियन साइमन ने अपने ट्विटर प्रोफाइल में चीन के बांध निर्माण की उपग्रह छवियां पोस्ट कीं थी। तस्वीरें मई 2021 से तिब्बत के बुरांग काउंटी में गतिविधि दिखाती हैं जो नेपाल के साथ अपनी सीमा साझा करती है। तस्वीरें जलाशय के साथ तटबंध प्रकार के बांध के निर्माण को दिखाती हैं। विश्लेषकों का कहना है कि उत्तराखंड के पास बन रहे चीन के इस बांध से भविष्य में ड्रैगन इस इलाके में पानी पर पूरा नियंत्रण स्थापित कर सकता है। चीन का यह बांध मेडोग सीमा पर बनाया जा रहा है जो अरुणाचल से बहुत करीब है। भारत इस महाकाय बांध को लेकर बहुत ही चिंतित है और इसीलिये वह पूर्वाेत्तर में अपने बांध के निर्माण कार्य को तेज कर रहा है। सूत्रों के मुताबिक चीन इस बांध के जरिए ब्रह्मपुत्र नदी के पानी की धारा को बदल सकता है। ब्रह्मपुत्र नदी न केवल पूर्वाेत्तर बल्कि बांग्लादेश के लिए भी जीवनदायी नदी है। इससे या तो अरुणाचल और असम में पानी की कमी हो जाएगी या इतना पानी आ जाएगा कि कई इलाके बाढ़ में डूब जाएंगे। भारत-नेपाल और चीन का यह ट्राइजंक्शन भविष्य में किसी भी जंग में बहुत अहम भूमिका निभा सकता है। यूं भी कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा को लेकर भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद सालों से चला आ रहा है।

 

चीन की महत्वाकांक्षा पानी को हथियार बनाने की 

तिब्बत के पठार से ही सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावेड्डी, सलवीन, यांगजे और मेकॉन्ग जैसी बड़ी नदियों का उद्गम होता है। ये नदियां भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, लाओस और वियतनाम में बहती हैं और इन देशों में सिंचाई और पीने के पानी का बड़ा स्त्रोत हैं। अनुमान के मुताबिक तिब्बत के पठार से हर साल करीब 718 अरब क्यूबिक मीटर पानी बहकर चीन और अन्य पड़ोसी देशों में जाता है। इसमें से करीब 48 फीसदी पानी अकेले भारत में बहकर जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, तिब्बत के पठार में पानी के बड़े-बड़े जलाशय हैं और चीन तिब्बत के इस पूरे पानी पर अपना दावा पेश करता आया है जो भारत के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। उसे आशंका है कि चीन इस पानी को भारत के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। 

दरअसल चीन की योजना इस पानी से देश में सिंचाई व्यवस्था को मजबूत करने और बिजली बनाने की है। द इंटरप्रेटर की रिपोर्ट के अनुसार, गलवान घाटी में हुई भारतीय और चीनी सैनिकों की झड़प के बाद चीन ने गलवान नदी के पानी का प्रवाह रोक दिया था। गलवान नदी सिंधु नदी की सहायक नदी है। इससे गलवान नदी का पानी भारत में बहकर आना बंद हो गया था। साल 2008 में भारत और चीन के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके तहत ब्रह्मपुत्र और सतलुज नदी का डाटा दोनों देशों ने एक दूसरे के साथ शेयर किया था ताकि बेहतर तरीके से पानी का प्रबंधन हो सके। हालांकि अब विशेषज्ञों का लगता है कि चीन के पास ये डाटा मौजूद है, ऐसे में वह इसका फायदा उठाकर इन नदियों में बाढ़ भी ला सकता है। साल 2017 में डोकलाम झड़प के दौरान भी ऐसी रिपोर्ट आईं थी कि चीन ने भारत के साथ ब्रह्मपुत्र और सतलुज नदियों के पानी का डाटा शेयर नहीं किया था, जिसके चलते उस साल असम और उत्तर प्रदेश में बाढ़ आई।

 

नदियों को लेकर होती भू-राजनीति से प्रभावित होते देश

ब्रह्मपुत्र नदी चार राज्यों के बीच साझा की जाती है, जिनमें दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले राज्य, चीन और भारत शामिल हैं। दोनों की अर्थव्यवस्थाएं तेजी से बढ़ रही हैं और दोनों ही पहले से दुनिया में सबसे अधिक जल संकट वाले देशों में से हैं। ब्रह्मपुत्र के सहयोगात्मक प्रबंधन की चुनौतियाँ बदलते मानसून के मौसम और पिघलते ग्लेशियरों, औपचारिक जल बंटवारे समझौतों की पूर्ण अनुपस्थिति, बुनियादी जल विज्ञान डेटा विनिमय के सीमित इतिहास और तनावपूर्ण राजनयिक संबंधों के कारण बढ़ गई हैं। ब्रह्मपुत्र का उपयोग भारत और चीन दोनों द्वारा दक्षिणी एशिया की भू-राजनीति को अन्य तरीकों से प्रभावित करने के लिए किया जाता रहा है और आगे भी किया जाता रहेगा। 

तिब्बत के जल पर स्पष्ट स्वामित्व का दावा करने वाला चीन दक्षिण एशिया की सात सबसे शक्तिशाली नदियों - सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावदी, साल्विन, यांग्त्ज़ी और मेकांग का अपस्ट्रीम नियंत्रक बनता जा रहा  है। ये नदियाँ पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, म्यांमार, लाओस और वियतनाम में बहती हैं, और किसी एक स्थान से सबसे बड़ा नदी अपवाह बनाती हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि हर साल 718 बिलियन क्यूबिक मीटर सतही पानी तिब्बती पठार और झिंजियांग और इनर मंगोलिया के चीनी प्रशासित क्षेत्रों से बहकर पड़ोसी देशों में चला जाता है जिसका लगभग आधा पानी, 48ः, सीधे भारत में बहता है। अनुमान ये है कि चीन इन नदियों का तीन तरह से दोहन कर सकता है-उन्हें अवरुद्ध या विचलित कर, बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का निर्माण कर, या फिर अपनी सिंचाई और बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए। ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन द्वारा पांच बांध भी बनाने से आशंका यह जताई जा रही है कि अरुणाचल प्रदेश राज्य के माध्यम से भारत में प्रवेश करने से पहले यू-बेंड पर ब्रह्मपुत्र को उत्तर में चीन की ओर मोड़ने के लिए दिशात्मक विस्फोट तकनीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसी आाशंकाओं के पीछे वाजिब कारण भी है। 2017 में भारत और चीन के बीच 73 दिनों के डोकलाम गतिरोध के बाद, ऐसी रिपोर्टें थीं कि चीन ने समझौते के उल्लंघन में ब्रह्मपुत्र और सतलज नदियों के हाइड्रोलॉजिकल डेटा को रोक दिया था - जिसके परिणामस्वरूप असम और उत्तर प्रदेश राज्यों में बाढ़ आई थी और ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि भारतीय क्षेत्र में साझा जलमार्गों ने चिंता पैदा की हो। 2004 में तिब्बती हिमालय से निकलने वाली सतलज की सहायक पारेचू नदी पर एक झील बनने लगी, जिससे भारत की सतलज घाटी में बाढ़ आने का खतरा पैदा हो गया था। हालांकि उस वक्त चीन सहयोगी बना रहा और उस समय उसने भारत के साथ अग्रिम रूप से अपस्ट्रीम डेटा साझा किया। 

 

जल मुद्दे पर नेपाल के साथ भी संबंधों में बढ़ती कड़वाहट 

तिब्बती पठार की दक्षिणी तलहटी में स्थित नेपाल 6,000 से अधिक नदियों और विशाल जलविद्युत क्षमता के साथ दुनिया के सबसे अधिक जल-समृद्ध देशों में से एक है। लेकिन यह दुनिया के सबसे अधिक आपदा-प्रवण क्षेत्रों में से एक भी है। शुष्क सर्दियाँ और गीली गर्मियाँ, हिमालय क्षेत्र के अस्थिर भूविज्ञान के साथ मिलकर, यहां भूस्खलन और बाढ़ का होना आम बात हैं। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आयसीआयएमडी) के जलवैज्ञानिक डॉ. एस. एम. वाहिद और डॉ. अरुण श्रेष्ठ का तर्क है कि नेपाल को आपदा चेतावनी प्रणालियों और जल संसाधनों के विकास पर क्षेत्रीय सहयोग की आवश्यकता है। नेपाल एक पहाड़ी देश है जहां प्रचुर मात्रा में जल संसाधन हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश संसाधनों का उपयोग नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वे, केंद्रित वर्षा या बर्फ के बांधों के टूटने पर उत्पन्न होने वाली मूसलाधार बारिश से बने होते हैं।

नेपाल के पास बड़े बाँधों और अन्य जल परियोजनाओं के निर्माण के लिए आवश्यक पूंजी और प्रौद्योगिकी का अभाव है और उसे अपनी जलविद्युत बेचने के लिए एक खरीदार की भी आवश्यकता है।  भारत एकमात्र ऐसा देश था जो नेपाल को सहायता प्रदान करने के लिए इच्छुक और सक्षम भी था क्योंकि उसे भी अपनी सिंचाई और जलविद्युत आवश्यकताओं और बाढ़ नियंत्रण के लिए नेपाल की जल परियोजनाओं की आवश्यकता थी। लेकिन पिछले विभिन्न जल समझौतों के तहत नेपाल के साथ न्यायसंगत व्यवहार न हो पाने से और चीन से बढ़ते दोस्ताना संबंधों के कारण भविष्य में भारत को इस छोटे से देश से सहयोग की उम्मीद कम ही रखनी होगी। नेपाल और भारत के बीच सीमा तनाव की एक वजह उत्तर-पश्चिमी सिरे पर महाकाली नदी बेसिन में लिपुलेख के पास के क्षेत्र पर अपना-अपना दावा करना भी हैं- यह क्षेत्र भारत, नेपाल और चीन के बीच एक त्रिकोणीय जंक्शन है।

महाकाली नदी नेपाल-भारत की सीमा के तौर पर भी काम करती है.। नेपाल के सर्वे विभाग के पूर्व महानिदेशक बुद्धि नारायण श्रेष्ठ की रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 1850 और 1856 में भारत और नेपाली अधिकारियों ने मिलकर नक्शा तैयार किया था। बुद्धि नारायण श्रेष्ठ के मुताबिक़ महाकाली नदी लिम्पियाधुरा (कालापानी से उत्तर पश्चिम में 16 किलोमीटर दूर) से निकलती है और सुगौली की संधि में इस नदी को दोनों देशों की सरहद क़रार दिया गया था, इसलिए इससे साबित होता है कि कालापानी नेपाल का हिस्सा है. लेकिन भारत इन नक्शों को सबूत के तौर पर स्वीकार करने से इनकार करता है। भारतीय पक्ष का कहना है कि इसकी जगह पर 1875 के नक्शे पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें महाकाली नदी का उद्गम कालापानी के पूरब में दिखलाया गया था।

चिंता का विषय ये है कि नेपाल में भारत विरोधी ताकत बढ़ती जा रही है। नेपाल के विकास के लिए चीन के निवेश करने से नेपाल के राजनीतिक अभिजात वर्ग को भारत को खुली चुनौती देने का साहस मिल गया है। चीन से लगातार मजबूत होते संबंधों को देख कई नेपाली राजनीतिक नेता अपने राजनीतिक आधार को मजबूत करने के लिए लगातार भारत विरोधी बयानों का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत अब नेपाल को हल्के में लेने की स्थिति में नहीं है। यू ंतो भारत की आजादी से पहले ही जल मुद्दे ने द्विपक्षीय संबंधों को कड़वा बना दिया था। किंतु यह भी सत्य है कि चीन ने नेपाल के राजनीतिक अभिजात वर्ग को ताकत प्रदान की है कि वे अब हमेशा भारत की बात न सुना करें। भारत और नेपाल के बीच व्यापार और पारगमन के मुद्दों और सुरक्षा चिंताओं के क्षेत्रों पर भी असहमति बढ़ती जा रही है। दरअसल नेपाली गुस्से का सबसे सुसंगत और अत्यधिक भावनात्मक कारण भारत द्वारा अपनी कृषि और ऊर्जा जरूरतों के लिए नेपाल के समृद्ध जल संसाधनों का कथित दोहन है। इधर भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल चीन के हाथ से खेल रहा है। वर्तमान विवाद में चीन क्या करेगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि यह शी जिनपिंग के चीन की महिमा का कायाकल्प के वैश्विक एजेंडे के अलावा दुनिया पर हावी होने की चीन की महत्वाकांक्षा के साथ कितना फिट बैठता है। 

 

निष्कर्ष

सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और भूगोल की दृष्टि से कोई भी दो देश इतनी नजदीकी नहीं रखते हैं जितने कि भारत-नेपाल हैं। सदियों से एक-दूसरे के मित्र राष्ट्र होते हुए भी 1800 किलोमीटर लंबी सीमा पर दोनों देशों के दरमियां कभी न ख़त्म होने वाले कई सीमा-विवाद संबंधों में कड़वाहट घोल रहे और जिसका फायदा चीन उठा रहा है। इसलिए ये आवश्यक हो जाता है कि भारत-नेपाल सीमा पर लिपुलेख कालापानी का जो विवाद चल रहा है, उसके लिए एक दूसरे की सम्प्रभुता और अखंडता का सम्मान करते हुए एक नए समझौते की पहल की जाये। नेपाल में नदी जल के उपयोग में भारत की सीधी भागीदारी अब तक महत्वपूर्ण रही है। भारत को चाहिए कि चीन के आकाश, जल और भूमि पर एकछत्र राज करने की मंशा को समझते हुए नेपाल पर दबाव बनाये क्योंकि ये भारत की सुरक्षा का प्रश्न है और चीन पर विश्वास करना बेवकूफी है।

 

Image Source: Xinhua

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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