लगभग 70 वर्षों से चीन को चला रही कम्युनिस्ट पार्टी आज भी महिलाओं को पारंपरिक नजरिए से ही देखती है। 1997 के बाद से, पोलित ब्यूरो में एक महिला सदस्य या कह लें दो इनसे अधिक महिलाओं को जगह न मिल सकी।। कोटा प्रणाली के लिए प्रत्येक स्तर पर वरिष्ठ नेतृत्व में कम से कम एक महिला की आवश्यकता होती है, जो उम्मीदवारों की एक छोटी लेकिन स्थिर धारा में योगदान देती है। लेकिन शी की ओनली मैन आर्मी के लाइन-अप का खुलासा उस दिन हुआ जब बीजिंग में 20वीं कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के समापन के बाद शी ने औपचारिक रूप से अपने शासन को अगले पांच वर्षों के लिए बढ़ा दिया, एक भी महिला प्रतिनिधित्व के बिना। एक नजर चीन के अपर्याप्त महिला प्रतिनिधत्व परः-

पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का 1954 का संविधान जब लिखा गया तो उसमें महिलाओं को पुरुषों के समान राजनीतिक अधिकारों के घ्यान में लिखा गया। बावजूद इसके चीनी महिलाओं की राजनीतिक स्थिति में कोई ठोस पहल देखने को नहीं मिली, संशोधन या बदलाव तो दूर की बात है। सिवाय एक अस्पष्ट बयान के कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी महिला अधिकारियों के प्रशिक्षण और पदोन्नति को बहुत महत्व देती है। सीसीपी के मिशनों और लक्ष्यों को रेखांकित करने वाले पूरे दस्तावेजों में महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों का एकमात्र उल्लेख ही पाया जाता है। चीन में पुरुष और महिला दोनों राजनीतिक नेताओं की नियुक्ति उम्र, शिक्षा, सीसीपी सदस्यता और अनुभव के आधार पर की जाती रही है। पुरूष आम तौर पर 50 की उम्र की शुरुआत में प्रांतीय नेतृत्व के लिए उभरते हैं जबकि महिलाएं बच्चे पैदा करने वाली और पालने वाली के रूप में भी मुख्य भूमिका निभाने के कारण सत्ता की दौड़ में प्रवेश करने में देरी करती है। और फिर महिलाओं को अपने पुरुष सहकर्मियों की तुलना में पांच साल पहले सेवानिवृत्त होना पड़ता है, इसलिए पदोन्नति के लिए उनके नाम पर विचार किए जाने की संभावना बहुत कम हो जाती  है। इसके अलावा उच्च शिक्षा पर सीसीपी का जोर महिलाओं के अधिकार को काटता है, जिसकी वजह से चीनी लड़कियों की उच्च शिक्षा तक पहुंच कम हो जाती है हालांकि हाल के वर्षों में शिक्षा में लिंग अंतर कम होता दिख रहा है। पारंपरिक मान्यताओं से इतर वे स्वयं को एक स्वालंबी महिला में बदल रही है और चीन की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाती दिख रही है।

मिंगलू सिडनी विश्वविद्यालय के सरकारी और अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग में वरिष्ठ व्याख्याता है। अपने एक अध्ययन में कहते है कि महिलाओं की मुक्ति के लिए सीसीपी की प्रतिबद्धता माओ त्सेतुंग के प्रसिद्ध दावे में परिलक्षित होती है जहां महिलाएंआधा आसमान’ का हक रखती दिखाई जाती रही। लेकिन इस प्रतिबद्धता ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों को सदैव अनदेखा किया है। लैंगिक असमानता को संबोधित करने वाली पार्टी-राज्य की नीतियां काफी हद तक महिलाओं की आर्थिक भूमिकाओं को बढ़ावा देने पर और एक आरक्षित श्रम शक्ति के रूप में ही देखती आई है, जो राष्ट्र-निर्माण और आर्थिक विकास के बड़े उद्देश्य में योगदान देती है। लेकिन जब सीसीपी की आर्थिक ज़रूरतें पूर्ण महिला रोजगार के लक्ष्य के साथ टकराव में आती हैं, तो महिलाओं की समानता दूसरे स्थान पर परिलक्षित होने लगी।

 

महिला प्रतिनिधित्व के मामले में चीन कागजी कानून तक सीमित?

चीन ने अन्य देशों की तुलना में तेज आर्थिक विकास हासिल किया, लेकिन राजनीतिक भागीदारी के मामले में बड़े पैमाने पर पुरुष-प्रधान समाज में महिलाओं को आज भी भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।1950 और 1970 के दशक के बीच, चीन की कैडर प्रबंधन प्रणाली द्वारा महिलाओं के अधिकारों को महसूस किया गया और संरक्षित किया गया, जिसके तहत सभी पार्टी कैडर और सरकारी अधिकारियों को पार्टी-राज्य द्वारा नियुक्त किया गया इस प्रणाली ने नियुक्तियों का निर्णय लेते समय लिंग कारकों को ध्यान में रखा, जिससे महिला संवर्गों के अनुपात में काफी वृद्धि हुई। 1970 के दशक में महिला अनुपात अपने चरम पर पहुंच गया, जो चीन में महिलाओं के राजनीतिक समावेशन के इतिहास में एक मील का पत्थर है। इसके बाद उपरी तौर पर पार्टी ने महिला कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और चयन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए महिलाओं की भर्ती के प्रयास किए। 1992 में, महिलाओं के अधिकारों पर पहला कानून, महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा पर पीआरसी कानून, अधिनियमित किये गये जिसे 2005 में संशोधित किया गया। कानून में फिर वही दोहराया गया कि राज्य को महिला कैडरों को सक्रिय रूप से प्रशिक्षित और चयन करना चाहिए।

अप्रैल 2009 में, राज्य परिषद के सूचना कार्यालय ने चीन की राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्य योजना (2009-2010) प्रकाशित की थी, जिसमें महिलाओं को सशक्त करने सबंधी कई बातें की गई जैसे जन सम्मेलनों, राजनीतिक सलाहकार सम्मेलनों और सभी स्तरों पर सरकारों के नेतृत्व में कम से कम एक महिला सदस्य होनी चाहिए। इसके अलावा, केंद्र सरकार के मंत्रालयों, प्रांतीय सरकारों और शहर सरकारों में कम से कम आधी एजेंसियों के नेतृत्व में एक महिला सदस्य होनी चाहिए। यहां तक कि इसमें कहा गया कि प्रांतीय, शहर और शहरों में कम से कम 20 प्रतिशत आरक्षित कैडर के पदों पर महिला को ही रखा जाये बावजूद इन प्रावधानों के पार्टी-राज्य पदानुक्रम में सभी स्तरों पर महिला प्रतिनिधियों की संख्या लगातार घटती रही। पहली गिरावट 1970 के दशक के मध्य के बाद देखने में आई। 1978 में महिला एनपीसी प्रतिनिधियों के अनुपात में तेजी से गिरावट आई। सबसे निचला बिंदु 1983 में देखने को मिला। 1978 से 1998 तक 20 वर्षों में, एनपीसी में महिलाओं का अनुपात लगभग 21 प्रतिशत था, जो 1993 से 1998 में 0.78 प्रतिशत अंक की वृद्धि दर्शाता है, लेकिन 2003 में यह गिरावट 0.79 प्रतिशत अंक तक गिर गईइसकी वजह सकारात्मक कार्रवाई का काफी हद तक सतही स्तर पर ही बने रहना और सत्ता संरचनाओं में महिलाओं को शामिल करने में पर्याप्त सुधार लाने में विफल होना रहा। महिलाएं आधे आसमान पर कब्जा करती हैं, लेकिन पुरुष पार्टी पर शासन करते हैं- यह टिप्पणी कई चीनी विशेषज्ञों की जुबान पर रहती है। इसकी वजह महिला प्रतिनिधित्व की लगातार अनदेखी है। अगर पोलित ब्यूरो में महिला सीट की बात करे तो पिछले सात दशकों में केवल कुछ ही महिला नेताओं ने इस महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाली संस्था में काम किया है। उनमें भी शीर्ष नेताओं की पत्नियाँ ही शामिल रही, जैसे माओ की पत्नी जियांग क्विंग, लिन बियाओ की पत्नी ये छून, झोउ एनलाई की पत्नी डेंग यिंगचाओ 1987 में 13वीं केन्द्रीय समिति और 1992 में 14वीं केन्द्रीय समिति के पोलित ब्यूरो में किसी भी महिला सदस्य की पूर्ण अनुपस्थिति थी।

 

अन्य देशों में महिला प्रतिनिधित्व और चीन

2023 तक के आंकड़ों को देखें तो 31 ऐसे देश नजर आते हैं जहां महिलाएं देश और/या सरकार की प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं। संयुक्त राष्ट्र महिला द्वारा संकलित आंकड़ों से पता चलता है कि मंत्रालयों का नेतृत्व करने वाले कैबिनेट सदस्यों में से 22.8 प्रतिशत महिलाएं प्रतिनिधित्व हैं। केवल 13 देश ऐसे हैं जिनमें महिलाएं कैबिनेट के 50 प्रतिशत या अधिक पदों पर हैं। केवल छह देशों की संसद में एकल या निचले सदनों में 50 प्रतिशत या अधिक महिलाएँ हैं जिनमें रवांडा (61 प्रतिशत), क्यूबा (53 प्रतिशत), निकारागुआ (52 प्रतिशत), मैक्सिको (50 प्रतिशत), न्यूजीलैंड (50) प्रतिशत) और संयुक्त अरब अमीरात (50 प्रतिशत) है। न्यूज़ीलैंड में तो सशक्त महिला प्रतिनिधित्व का इतिहास रहा है। 1893 में, यह महिलाओं को वोट देने की अनुमति देने वाला पहला देश बन गया। लैटिन अमेरिका और कैरेबियन में 36 प्रतिशत संसदीय सीटें महिलाओं के पास हैं और यूरोप में 32 प्रतिशत सांसद हैं। उप-सहारा अफ्रीका में 27 प्रतिशत महिला विधायक हैं, इसके बाद ओशिनिया में 20 प्रतिशत, मध्य और दक्षिणी एशिया में 19 प्रतिशत महिला विधायक हैं।

हालांकि अभी भी दुनिया के अधिकांश देशों ने लैंगिक समानता हासिल नहीं की है, हां लिंग कोटा ने पिछले कुछ वर्षों में प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। विधायी उम्मीदवार कोटा वाले देशों में, ऐसे कानून के बिना देशों की तुलना में संसदों और स्थानीय सरकार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व क्रमशः पांच प्रतिशत अंक और सात प्रतिशत अंक अधिक ही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान स्थितियों को देखते हुए, अगले 130 वर्षों तक दुनिया के किसी भी देश में सत्ता के सर्वोच्च पदों पर लैंगिक समानता हासिल नहीं की जा सकेगी। ये भी तब संभव है जब 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की समान भागीदारी और नेतृत्व आवश्यक किया जाये।

जहां तक चीन की बात है, चीन सरकार आधिकारिक तौर पर लैंगिक समानता का समर्थन करती है, लेकिन राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बड़ी असमानताएँ लगातार देखी जा सकती है। 2017 में, सीसीपी में महिला सदस्यता कुल पार्टी सदस्यता की सिर्फ एक चौथाई थी। इसी तरह, 2018 में आयोजित नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के 13 वें सत्र में केवल 24.9 प्रतिशत प्रतिनिधि महिलाएं थीं। चीन की पोलित ब्यूरो स्टैंडिंग कमेटी में अब तक कोई महिला नहीं बैठी है और ही किसी महिला ने कभी राष्ट्रपति पद संभाला है। महिलाओं को कमतर आकना और पितृसत्तात्मकता सोच इसकी एक बड़ी वजह है जो महिलाओं को पूरी तरह से राजनैतिक भागीदारी में हिस्सा देने से कतराती है। चीन के विशेषज्ञों का तर्क है कि विचारधारा और दर्शन स्वयं चीन में महिलाओं के खिलाफ जारी भेदभाव के सवाल का संतोषजनक उत्तर नहीं देते हैं। राजनीति ही नहीं, बल्कि चीनी महिलाओं को स्नातक श्रम बाजार में भी काम पाने में बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है विशेषज्ञ चेंग ली के अनुसार वर्तमान समय में चीन में महिलाएं जनसंख्या के 48.7 प्रतिशत और श्रम शक्ति के 44.5 प्रतिशत हैं। केंद्रीय समिति के 376 पूर्ण और वैकल्पिक सदस्यों में 30 महिलाएं (7.9 प्रतिशत) हैं।

 

बेहतर स्थिति में लिंग समानता की ओर बढ़ता भारत

2019 के लोकसभा  चुनाव के बाद महिला प्रातनिधित्व 14 प्रतिशत हो गया है, और 2020 के आकड़ों के अनुसार राज्यसभा में 10.2 प्रतिशत महिलायें है। 2023 में लगभग तीन दशक बाद लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना महिला अधिकार की क़ामयाबी एवं लैंगिक समानता को लेकर प्रतिबद्धता उत्साहित करने वाली हैं जो भविष्य में भारत में महिला प्रतिनिधित्व के ग्राफ के बढ़ने की उम्मीद जगाता है। फिलहाल ग्रामीण स्तर पर भारत में महिलाएं संसद से कहीं अधिक बड़े स्तर पर काम कर रही है। पंचायतों (स्थानीय परिषदों) पर किये गये शोध से पता चला कि महिला-नेतृत्व वाली परिषदों वाले क्षेत्रों में पेयजल परियोजनाओं की संख्या पुरुष-नेतृत्व वाली परिषदों की तुलना में 62 प्रतिशत अधिक थी। अध्ययनों से पता चलता है कि पिछले कुछ सालों में भारत के गांवों में महिला सरपंचों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई है। सरकारी योजनाओं को लागू करने से लेकर स्वास्थ्य और शैक्षिण मामलों तक, गांवों में महिला मतदाता महिला प्रतिनिधियों के नेतृत्व में ही कार्य करना या करवाना पसंद करते है। कुछ सालों पूर्व प्रख्यात अर्थशास्त्री राघबेंद्र चट्टोपाध्याय और एस्थर डुफ्लो पारंपरिक सांख्यिकीय महत्व के परीक्षणों को अमल में लाते हुए एक दिलचस्प तथ्य को सामने लाने का प्रयास करते है, जिसके मुताबिक़ अगर गांव में कोई महिला चुनी जाती है, तो उसके द्वारा स्थानीय स्तर पर महिला आबादी तक सरकारी वस्तुओं और सेवाओं को आवंटित करने की संभावना अधिक प्रबल होती है। इसलिए कहा जा सकता है कि महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व शुरूआत में ज़रूर प्रतीकात्मक लग सकता है, लेकिन मतदाताओं के व्यवहार और विचारों पर, विशेष रूप से ज़मीनी स्तर पर इसका लंबे समय तक असर डालता है।

 

निष्कर्ष

दरअसल चीन में महिला का राजनीति से दूर रखने की वजह खुद चीनी नेता शी है जो राजनीति में महिलाओं के समर्थक नहीं हैं। अपने समाज के प्रति चीनी नेता का यह एक अति पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण चीन के विकास में एक बड़ी बाधा है। 2021 में एक बच्चे की नीति का अंत फिर ज्यादा बच्चे पैदा करने का आवाहन करना चीनी राष्ट्रपति के लिए पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों के महत्व पर जोर देने जैसा है। चीनी नेता का महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर रवैय्या ज्यादा उत्साहजनक नहीं दिखाई देता। चीन में मौजूदा जनसांख्यिकीय संकट से निपटना है सके लिए महिलाओं के आधे आकाश की चाह को नीतियों तक ही बनाये रखना चाहते है

 

Image Credit: CGTN

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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