चीन और रूस के राजनयिक संबंधों की स्थापना की 75वीं वर्षगांठ पर लिखे गये एक पुराने गीत की प्रसिद्ध पंक्ति ’रूसी और चीनी हमेशा के लिए भाई हैं ‘ को कोट करते हुए  7,000 शब्दों में रखे गये रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के मंतव्य ने पश्चिम की नींद उड़ा दी है। रूस-चीन साझेदारी की भाईचारे की बलवती होती इस भावना ने भारत को भी कम चिंतित नहीं किया है। 

इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के बाद से ही चीन-रूस के आपसी संबंधों में जबरदस्त सुधार देखने को मिला है। दोनों ने ही 2000 के दशक में अपने सीमा विवाद को औपचारिक रूप से काफी हद तक सुलझा लिये। यहां तक कि संयुक्त सैन्य अभ्यास और हथियार सौदों के माध्यम से और अधिक आपसी सुरक्षा सहयोग में इजाफा किया। इसमें कोई शुबहा नहीं कि चीनी राष्ट्रपति शी और पुतिन के बीच व्यक्तिगत संबंध भी घनिष्ठ हैं। अगर ठीक-ठीक आकलन किया जाये तो शी के सत्ता में आने के बाद से, आप पाते है कि शी और पुतिन की बयालीस अलग-अलग मौकों पर भेंट हो चुकी हैं, जो चीनी राष्ट्रपति की किसी भी अन्य विश्व नेताओं के साथ हुई भेंटवार्ताओं की तुलना में कहीं अधिक है। शी ने पुतिन को कई मौकों पर अपनासबसे अच्छा दोस्तऔरसहयोगीकह कर पुकारा है और जिसके प्रत्युत्तर में रूसी राष्ट्रपति ने अपने चीनी समकक्ष को अपनाप्रिय मित्रकह कर संबोधित किया है। पुतिन चीन की वैश्विक बुनियादी ढांचा परियोजना, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की भी कई दफे प्रशंसा कर चुके है और इसमें अपना पूर्ण सहयोग भी दे रहे है।

शी ने बीजिंग में पुतिन का भव्य स्वागत, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन द्वारा कई चीनी उत्पादों पर नए टैरिफ की घोषणा के ठीक दो दिन बाद किया। इस मौके पर दोनों ही नेताओं ने अपने देशों के सहयोग को और गहरा करने का वादा किया। आप गौर करें तो पाएंगें कि दुनिया में अमेरिकी प्रभाव का विरोध करने के लिए इन देशों ने खुद को बहुपक्षीय संस्थानों में भी शामिल कर लिया है। इन्होंने विकासशील देशों से समर्थन हासिल करने के लिए ब्रिक्स (ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका के साथ) और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसे अपने स्वयं के संस्थान स्थापित कर लिए हैं। ब्रिक्स 2009 में अपने पहले शिखर सम्मेलन के बाद से वैश्विक प्रभाव का एक विशेष रूप से प्रभावी माध्यम रहा है, और इसका उद्देश्य अमेरिकी डॉलर के वैश्विक प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए डी-डॉलरीकरण को बढ़ावा देना है। अब तक मिस्र, इथियोपिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश भी आधिकारिक तौर पर ब्रिक्स समूह में शामिल हो गए हैं। यूरोप की सख्त नीति को पलटने के लिए गत दिनों की गई यूरोप की यात्रा चीनी नेतृत्व के प्रयासों का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मध्य और पूर्वी यूरोप इस मिशन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। बीजिंग को यहां समान विचारधारा वाले कई देश मिले हैं जो वाशिंगटन (और उसके निकटतम सहयोगियों) की वर्तमान भूराजनीतिक रणनीति को भी चुनौती देते हैं और चीन और रूस के साथ घनिष्ठ संबंध बनाना चाहते हैं। इसमें सर्बिया और हंगरी प्रमुख हैं।

 

राजनीतिक प्रणालियों में समानता हैं इस मित्रता का आधार

चीनी और रूसी राजनीतिक प्रणालियों के बीच कुछ समानताएँ है जो इनके आपसी संबंधो को मजबूती देने में सहायक है। जैसे - दोनों ही सत्तावादी शासन है, जिनकी शक्ति लंबे समय तक शासन करने वाले एक ही नेता के हाथों में केंद्रित है। चीन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाला एक दलीय राज्य है, जबकि रूस पुतिन की संयुक्त रूस पार्टी के प्रभुत्व वाली एक बहुदलीय प्रणाली है। दोनों ने त्वरित गति से घरेलू असहमतियों पर नकेल कसी और अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए कानून के शासन को कमजोर किया। दोनों ही विदेशों में अपना प्रभाव दिखाने और लोकतांत्रिक मानदंडों को कमजोर करने के लिए विध्वंसक, गैर-सैन्य रणनीति का भी इस्तेमाल करने में पीछे नहीं रहे। उदाहरण के लिए, रूस ने ऑनलाइन दुष्प्रचार अभियानों और साइबर हमलों के माध्यम से 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव सहित विदेशी चुनावों में हस्तक्षेप किया है। इसी तरह चीन के सरकारी स्वामित्व वाले मीडिया संगठन दर्जनों देशों में सूचना की कमी को पूरा करने, बीजिंग के अनुकूल समाचार प्रसारित करने और प्रकाशित करने में आगे रहे। दोनों के बीच समानता का एक घरेलू कारण  भी है और वह यहकि दोनों ही देशों को कामकाजी उम्र वाली आबादी में गिरावट का सामना करना पड़ रहा है।

चीन और रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक-दूसरे का समर्थन करते हैं या कहें विरोध नहीं करते हैं जबकि दोनों वीटो-शक्ति वाले स्थायी सदस्य हैं। 2004 के बाद से किसी ने भी एक दूसरे के समर्थन के बिना सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को वीटो नहीं किया है। हालांकि मध्य एशिया में उनके अलग-अलग हित हैं। रूस ने सहयोगी पूर्व सोवियत गणराज्यों की सुरक्षा और राजनीतिक स्थिरता का समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित किया है, जबकि चीन ने व्यापार और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया है। गौर करने वाली बात ये है कि दोनों ने ही आज तक एक-दूसरे के साथ संघर्ष को टालने का पूरा प्रयास किया है और एससीओ के माध्यम से क्षेत्रीय सुरक्षा बनाए रखने के लिए आपसी सहयोग से काम लिया।

 

इस नये युग की देास्ती पर क्या कहते है विशेषज्ञ

दरअसल शी एक लंबे अर्से से चीन के लिए एक कनिष्ठ साझेदार की तलाश कर रहे हैं। और समान सोच रखने वाले रूसी साथी से बेहतर उनके लिए कौन हो सकता था। चीनी अर्थव्यवस्था को यूरोप द्वारा जोखिम कम करने और संयुक्त राज्य अमेरिका से नए टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है। और इस संबंध में कुछ विशेषज्ञों के विचारों पर ध्यान दिया जाये तो ये चीन-रूस और उनके आपसी प्रभाव को स्पष्ट कर देते है।

जॉन . हर्बस्ट, अटलांटिक काउंसिल के यूरेशिया सेंटर के वरिष्ठ निदेशक और यूक्रेन में पूर्व अमेरिकी राजदूत हैं, के अनुसार दोनों दिग्गजों का संयुक्त बयान गहरी रणनीतिक साझेदारी और नए युग की बात करता है, लेकिन हाल के महीनों में रूस को चीनी निर्यात में गिरावट देखने में आई है। यह मॉस्को को सैन्य सहायता प्रदान करने और रूस पर प्रतिबंध नीति का उल्लंघन करने के बारे में संयुक्त राज्य अमेरिका की हालिया चेतावनियों को अच्छी तरह से प्रतिबिंबित कर सकता है। रूस से चीनी तेल और गैस की खरीद ने उसे पश्चिमी प्रतिबंधों का सामना करने में मदद की है, लेकिन शायद चीनी मेजबान पश्चिम को अनावश्यक रूप से नाराज भी नहीं करना चाहते और इसलिए, गज़प्रोम के प्रमुख चीन में रूसी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा नहीं थे।

माइकल शूमन, अटलांटिक काउंसिल के ग्लोबल चाइना हब में एक अनिवासी वरिष्ठ सहयोगी  और अटलांटिक पत्रिका के लिए एक योगदानकर्ता लेखक हैं, कहते है कि यह कोई सुंदर दृश्य नहीं है। आधी सदी पहले, चीन ने सोवियत संघ से अलग होने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंध बनाए। अब, जैसे ही चीन संयुक्त राज्य अमेरिका से अलग हुआ, वह अब फिर से रूस के साथ जुड़ रहा है। समस्या यह है कि शी पच्चीस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ संबंधों का आदान-प्रदान उस उन्नत तकनीक के साथ कर रहे हैं जिसकी चीन को दो ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यकता है और जो एक गैस स्टेशन से ज्यादा कुछ नहीं है। यकीनन यह कोई बढ़िया सौदा नहीं है।

किम्बर्ली डोनोवन, जो अटलांटिक काउंसिल के जियोइकोनॉमिक्स सेंटर के भीतर इकोनॉमिक स्टेटक्राफ्ट इनिशिएटिव के निदेशक और अमेरिकी ट्रेजरी विभाग के वित्तीय अपराध प्रवर्तन नेटवर्क के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी हैं, के अनुसार- पुतिन और शी की नवीनतम बैठक हमारे आकलन की पुष्टि करती है कि पश्चिमी प्रतिबंधों के मद्देनजर चीन रूस के लिए आर्थिक जरूरत बन गया है। दोनों देश चीनी युआन और रूसी रूबल में व्यापार कर रहे हैं, जो उन्हें पश्चिमी प्रतिबंधों से बचने की अनुमति देता है क्योंकि लेनदेन अमेरिकी डॉलर, यूरो और अन्य समूह सात (जी 7) प्रतिबंध गठबंधन मुद्राओं के बाहर हो रहे हैं।

एंड्रयू . मिच्टा स्कोक्रॉफ्ट स्ट्रैटेजी इनिशिएटिव के निदेशक और अटलांटिक काउंसिल में वरिष्ठ फेलो हैं के अनुसार-पुतिन-शी की बैठक संकेत दे रही है कि रूस-चीन गठबंधन, नई तानाशाही की धुरी का मूल, जिसमें ईरान और उत्तर कोरिया भी शामिल हैं, मजबूत हो रहा है। चीन ने 2022 में यूक्रेन पर अपने पूर्ण पैमाने पर आक्रमण के बाद रूस को एक आर्थिक जीवनरेखा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शी की हाल की यूरोप यात्रा ने अटलांटिक गठबंधन को तोड़ने और पूरे विश्व में एक मौलिक शक्ति पुनर्गठन लाने के दोनों देशों के साझा उद्देश्य को रेखांकित किया है।

मार्कस गारलॉस्कस, स्कोक्रॉफ्ट सेंटर फॉर स्ट्रेटजी एंड सिक्योरिटी में इंडो-पैसिफिक सिक्योरिटी इनिशिएटिव के निदेशक हैं और पूर्व में वरिष्ठ अमेरिकी सरकारी अधिकारी रह चुके हैं। उनके पास खुफिया अधिकारी और रणनीतिकार के रूप में दो दशकों का अनुभव है, कहते है कि वर्षों से, हम एक नए रणनीतिक युग में हैं जहां शी का चीन और पुतिन का रूस तेजी से एकजुट हो रहे हैं और निकट सहयोग कर रहे हैं, और यह केवल यूक्रेन के खिलाफ पुतिन के युद्ध के बाद से तेज हुआ है। पर्यवेक्षकों को खुद को आश्वस्त नहीं करना चाहिए कि पुतिन और शी वास्तव में सहयोगी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने औपचारिक पारस्परिक रक्षा संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। यूं भी चीनी हथियार और सेनाएं यूक्रेन के खिलाफ रूस की आक्रामकता में शामिल नहीं हुई हैं।

 

भारत के निहितार्थ इस दोस्ती के मायने कम चिंताजनक नहीं

भारत के लिए सबसे पहली और अहम समस्या चीन है। भारत और चीन के बीच लद्दाख में सीमा पर गतिरोध चल रहा है और अरुणाचल प्रदेश में सीमा पर भी कई झड़पें देखी गई हैं। भारत के सैन्य शस्त्रागार का बड़ा हिस्सा रूसी हथियारों से बना है। गहराते रूस-चीन गठबंधन का मतलब है कि अतीत में सीमा पर भारत को जो भी लाभ रूस से मिला है, वह भविष्य में मौजूद नहीं रह सकता है। राजनीतिक और आर्थिक समर्थन के लिए रूस की चीन पर निर्भरता चीन पर दबाव डालने या सीमा टकराव में भारत के प्रति सहायक रुख अपनाने को लेकर संशकित दिख रही है। अपनी 60-70 रक्षा आपूर्ति रूस से आने के कारण, भारत की निर्भरता महत्वपूर्ण है, खासकर चीन के साथ चल रहे सीमा तनाव के बीच। पश्चिमी विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि रूस चीन का कनिष्ठ भागीदार बन भारत की रणनीतिक गणना को जटिल बना सकता है। गत दिनों हुए भारत-चीन संघर्षों के दौरान सोवियत संघ के रुख का ऐतिहासिक संदर्भ वर्तमान भूराजनीतिक परिदृश्य में जटिलता की एक और परत जोड़ता है।

वाशिंगटन डी.सी. में ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन में भारत परियोजना की निदेशक तन्वी मदान की शंका बेआधार नहीं है। वे कहती है यदि रूस चीनी समर्थन पर अधिक निर्भर हो जाता है और ऐसे में चीन उसे किसी संकट के दौरान भारत को आपूर्ति रोकने के लिए कहे तो ऐसे में मास्को क्या विकल्प चुनेगा? मदान हमें यह याद दिलाने के लिए 1962 के चीन-भारत युद्ध का उदाहरण भी देते हैं कि माओत्से तुंग की भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने की योजना में सोवियत समर्थन महत्वपूर्ण था। और वह हमें नहीं भूलना चाहिए। चीन द्वारा भारत को महत्वपूर्ण रक्षा आपूर्ति से समझौता करने के लिए रूस को मनाने में सक्षम होने का जोखिम भी कम नहीं है। जैसा कि कार्नेगी मॉस्को सेंटर के निदेशक दिमित्री ट्रेनिन ने कहा है कि हमारे चीनी पड़ोसी मित्र, रूस द्वारा भारत को हथियारों की आपूर्ति से ज्यादा खुश नहीं हैं। भारत और रूस दोनों ने ऐतिहासिक रूप से जटिल भू-राजनीतिक वास्तविकताओं से निपटने की इच्छा और क्षमता दिखाई है और अब तक द्विपक्षीय संबंधों की गतिशीलता को तीसरे पक्ष की प्राथमिकताओं से अलग रखने में कामयाब भी रहा हैं। लेकिन आगे आने वाली परिस्थितियों में रूस प्रतिकूल होगा, यह संदेह से परे नहीं है। इतिहास गवाह है कि सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने माओ को भारतीय प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ एक समझौता करने के लिए जोर दिया था, भले ही इसका मतलब भारतीयों को क्षेत्र सौंपना था। दरअसल सोवियत भारत में नेहरू के बाद के भविष्य को लेकर चिंतित थे, खासकर तब जब माओ ने भारतीयों को एंग्लो-अमेरिकन खेमे में जाने के लिए मजबूर किया। लेकिन जब क्यूबा मिसाइल संकट का दबाव बढ़ा तो ख्रुश्चेव ने चुपचाप माओ का भारत के खिलाफ आक्रामक अभियान स्वीकार कर लिया। जिस तरह रूस द्वारा भारत की रक्षा आपूर्ति में कटौती का जोखिम कम है, उसी तरह यह भी संभावना कम नहीं है कि मॉस्को चीन के साथ भारत की प्रतिद्वंद्विता में भारत के लाभ के हित में पक्ष चुनेगा। रूस के साथ संबंध भारत की कई राष्ट्रीय सुरक्षा जरूरतों को पूरा करता है, लेकिन चीन के साथ संतुलन बनाना उनमें से एक नहीं है।

 

निष्कर्ष

निष्चित तौर पर चीन और रूस औपचारिक सहयोगी नहीं हैं जो सैन्य समर्थन के साथ एक-दूसरे की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन उनकी सशस्त्र सेनाओं ने हाल के वर्षों में अधिक निकटता से मिलकर काम किया है। एक हिमखंड से इस मित्रता की तुलना करते हुए बर्लिन में कार्नेगी रूस यूरेशिया सेंटर के चीन विशेषज्ञ अलेक्जेंडर गैबुएव की यह टिप्पणी गौर करने वाली है कि सार्वजनिक दस्तावेज़ प्रतीकात्मक और काफी हद तक अर्थहीन होते हैं। लेकिन पानी के नीचे का एक हिस्सा है, जिसके कहीं अधिक महत्वपूर्ण होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

 

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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