चीन से लगातार मिलती चुनौती के चलते अमेरिका एक बार फिर चीन पर दबाव बनाने के लिए तिब्बत की आजादी पर ध्यान फोकस कर रहा है। अमेरिकी संसद में पास ‘रिसाल्व तिब्बत एक्ट’ पर अमेरिकी सांसदों के दल का धर्मशाला आकर दलाई लामा से मुलाकात करना, भारतीय प्रधानमंत्री का उस डेलीगेशन से मिलना एक तरह से चीन की तरफ से सीमा पर बढ़ते तनाव के प्रति भारत का सांकेतिक विरोध दर्ज कराना रहा।

सन 1949 में माओ त्सेसुंग ने कहा था कि जो भी देश तिब्बत के पठार को अपने कब्जे में कर लेता है, हिमालय के तटवर्ती देश उसी के प्रभाव में रहेगें और वही एशिया का मसीहा होगा। शी जिनपिंग भी इससे इतर सोच नहीं रखते इसीलिए तिब्बत, लद्दाख, सिक्किम, भूटान और नेपाल को चीन के  प्रभावक्षेत्र के अंदर लाने के लिए भूरणनैतिक नीति पर काम करते आये है। 70 सालों से तिब्बत का मुद्दा चीन और दुनिया भर में संघर्ष और विवाद का स्रोत बना हुआ है। सबसे प्रबुद्ध और प्रतिबद्ध मध्यस्थता के बावजूद तिब्बतियों और चीनी सरकार के अलग-अलग दृष्टिकोण इस गतिरोध को हल करने में बेहद मुश्किलें खड़ी करते आये है। लेकिन अचानक ही तिब्बत के प्रति अपनी कर्त्तव्यपरायणता का इजहार कर रहे अमेरिका की मंशा ने जहां चीनी सरकार को परेशान कर दिया वहीं भारत को भी सतर्क कर दिया। सात अमेरिकी सांसदों के दल में  रिपब्लिकन प्रतिनिधि माइकल मैककॉल के साथ डेमोक्रेटिक पूर्व हाउस स्पीकर नैन्सी पेलोसी  की उपस्थिति भी विशेषज्ञों की दिलचस्पी का एक प्रमुख कारण है। नैंसी पैलोसी वही है जिन्होंने चीन के धमकाने के बावजूद ताइवान के दौरे को सफलता से अंजाम दिया और जो अब, अमेरिकी संसद में ’रिसाल्व तिब्बत एक्ट विधेयक रखने की वजह से चर्चा में है। जिस मुस्तैदी से इस विधेयक पर काम कर उसकी कापी भारत के धर्मशाला में आकर तिब्बती धर्मगुरू को भेंट की गई, वह बेहद चौंकाने वाली प्रक्रिया रही। इसी बीच तिब्बती घर्मगुरू का अमेरिकी डेलीगेशन से मुलाकात के कुछ दिन बाद ही इलाज के लिए अमेरिका पहुंचना भविष्य में भूराजनैतिक करवट बदलने की दस्तक दे रहा है। 

इस विधेयक में तिब्बत समस्या के समाधान के लिए चीन पर दबाव डालने की सिफारिश की गई है। निश्चित तौर पर विधेयक पर अमेरिकी राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने के बाद चीन पर तिब्बतियों से बातचीत करने का दबाव बढ़े़गा। इस विधेयक की सबसे रोचक बात यह है कि उस कानून पर, रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स, दोनों दलों में सर्वसम्मति है। एक तरह से इस कानून के जरिए तिब्बत को लेकर बेहद आक्रामक नीति अपनाने वाले राष्ट्रपति शी जिनपिंग के रवैये को सीधी चुनौती दी गई है। तिब्बत को चीन का ‘अविभाज्य अंग’ बताने, उससे जुड़े हर सवाल को चीन का ‘आंतरिक’ विषय कहने, तिब्बत और अपनी ‘वन-चाइना’ पालिसी को लेकर अति आग्रही जिनपिंग की तिब्बत से जुड़ी नीतियों को, नए कानून में तहत अमान्य करार किया जाना अमेरिकी गंभीरता का प्रदर्शन कर रहा है। अगर यह गंभीरता प्रदर्शन से इतर कार्यरूप में आ गई तो निश्चित तौर पर इसका प्रभाव दुनिया के अनेक देशों पर दिखने वाला है।

 

आपसी सांठ-गांठ के राजनैतिक दांवपेंच में फंसी तिब्बत की स्वायत्ता

तिब्बत को लेकर की जाती भूराजनीति-भूरणनीति से पहले तिब्बत को जानना जरूरी है। तिब्बती पठार में रहने वाले मूल निवासी तिब्बती हैं, जबकि चीन में बहुसंख्यक जातीय समूह ’हान चीनी’ हैं। लगभग सभी तिब्बती बौद्ध कहे जाते हैं। लेकिन जातीय ’हान चीनी’ आम तौर पर बौद्ध नहीं हैं, भले ही चीनी लोग तेज़ी से धार्मिक होते जा रहे हैं। तिब्बती बौद्ध धर्म में इस तरह का अनुसरण और परिवर्तनकारी क्षमता है। इन्हीं कारणों से, तिब्बत संघर्ष की सुर्खियाँ अक्सर तीव्र धार्मिक और जातीय संघर्ष की तस्वीर पेश करती आई हैं। 

भौगौलिक दृष्टिकोण से तिब्बत पूरे दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के लिए महत्वपूर्ण है। चीन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित तिब्बत की सीमा भारत, नेपाल, म्यांमार और भूटान से लगती है। बहमपुत्र, यांगक्सी और सिंधु जैसी नदियां तिब्बत के मुहाने से निकलती है जो आधे से अधिक एशियाई देशों से होकर गुजरती हैं। इसलिए भौगौलिक दृष्टिकोण से अपनी बुनियादी सुरक्षा के लिए चीन तिब्बत को अपने लिए बेहत महत्वपूर्ण और जरूरी मानता है। 

ऐतिहासिक तौर से तिब्बत को देखे तो मार्च 1947 में दिल्ली में ‘एशियन रिलेशंस कांफ्रेंस’ में तिब्बत और चीन, दोनों ने स्वतंत्र देशों की तरह हिस्सा लिया था। । इससे पहले 1914 में शिमला में चीन, तिब्बत और भारत ने आपसी सीमांकन समझौता भी किया था। 1951 तक तिब्बत एक स्वतंत्र देश रहा लेकिन 1949 में चीन के आक्रमण करने के साथ ही परिस्थितियां तिब्बत के लिए पूर्ववत नहीं रही। बढ़ते राजनैतिक और सैन्य दबाव का सामना तिब्बत अधिक दिन न कर सका और दस साल बाद 1959 में तिब्बती क्षेत्र पर चीनियों का पूर्णरूपेण कब्जा हो गया। तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद वहां के नेता और धर्म गुरु दलाई लामा भारत आ गये थे। उनके साथ ही तिब्ब्तियों की एक बड़ी आबादी भी भारत आ गई, जो हिमाचल के धर्मशाला से लेकर देश के कई हिस्सों में बस गई। तब से चीन तिब्बत और दलाईलामा से संदर्भित भारत के नरम रूख पर राजनैतिक दांव चलता आ रहा है। दलाई लामा सहित भारत सरकार भी चीन के खिलाफ मोर्चाबंदी कसे तिब्बत की आजादी की बात लगातार उठाते रहे हैं। हालांकि इस संदर्भ में चीन का दोगलापन इसी बात पर नजर आ जाता है कि वह 1890 के दस्तावेज का हवाला देकर डोकलाम को तो अपना बताता है लेकिन 1914 के दस्तावेज के अनुसार एक स्वतंत्र देश रहे तिब्बत को एक आजाद देश मानने से इंकार करता है। 

 

तिब्बत और उसकी आजादी को लेकर अमेरिका की बैचेनी कोई नई नहीं

तिब्बत एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर चीन की ही नहीं अमेरिका की भी नज़र है और फिर आज तक तिब्बत को लेकर की गई अमेरिकन कोशिशें भी कोई नई बात नहीं। 1950 के दशक में अमेरिका ने भी तिब्बती गुरिल्ला फोर्स को सपोर्ट कर दलाई लामा के लिए गैर.सैन्य समर्थन प्रदान करना आरंभ किया था जो चीन-अमेरिका संबंधों के सामान्य होने तक चलता रहा। लेकिन 1974 के आते-आते अमेरिका ने अपना समर्थन बंद कर दिया।  हालांकि,  अमेरिकी नीतियों ने अब तक स्थिति में कोई सुधार नहीं किया है। तिब्बत में सीआईए की 1950 और 1960 के दशक की भागीदारी के साथ-साथ जॉर्ज डब्ल्यू बुश प्रशासन की आक्रामक चीन विरोधी नीति ने चीन की संप्रभुता संबंधी आशंकाओं को और मजबूत किया है। 2018 में ट्रंप प्रशासन के दौरान ’रेसीप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत एक्ट-2018’ विधेयक पास किया गया था लेकिन चीनी विरोध के बाद यह एक नाटक बन के रह गया। अब तक अमेरिका तिब्बत कार्ड महज चीन को हुड़की देने के लिए ही इस्तेमाल करता आया है। लेकिन हाल की अमेरिकी नीतियां न केवल चीनी नीति को नरम करने में विफल रही है, बल्कि तिब्बती निर्वासितों को स्वतंत्रता के लिए पैरवी करने के लिए भी प्रेरित करने में सफल रही। फिर तिब्बत पर अमेरिकी कार्रवाई ने चीन की इस आशंका को और बढ़ा दिया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका चीन को अस्थिर करने की कोशिश कर रहा है। यह वास्तविकता तिब्बतियों के साथ काम करने के इच्छुक चीनी लोगों की स्थिति को कमजोर कर कट्टरपंथियों को मजबूत करती है, और वास्तव में तिब्बती कारणों की मदद करने के लिए कुछ नहीं कर पाती है।

यह भी एक बड़ा सत्य है कि तिब्बत को लेकर अमेरिकी सरकार एकाएक नहीं जागी। तिब्बत के समर्थन में अमेरिकी संसद दर्जनों बार कई कानून और प्रशासनिक आदेश पारित कर चुकी है। पूर्व में, संयुक्त राष्ट्र महासभा में तिब्बत के समर्थन में 1959, 1961 और 1965 के दौरान प्रस्ताव पारित कराने में अमेरिका ने शुरुआती प्रयास किए थे, लेकिन फिर चीन की तरफ दोस्ताना हाथ बढ़ाने के चलते तिब्बत का मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया। लेकिन इस बार अमेरिका के द्वारा की जा रही ये नई पहल भारत जैसे कई अन्य एशियाई देशों के लिए  संभावनाओं के नये द्वार खोल सकती है, जिनकी राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वभौमिक हितों पर तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद से खतरे बढ़े हैं। नये कानून के तहत धर्मशाला-बीजिंग की प्रस्तावित शांति वार्ताओं में तिब्बत की ओर से न केवल दलाई लामा और उनके प्रतिनिधियों को भाग लेने का अधिकारी माना गया है, बल्कि धर्मशाला में तिब्बती जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी शामिल कर केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को ‘तिब्बती सरकार’ जैसी परोक्ष मान्यता भी दी गई है। उक्त कानून में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि दलाई लामा या अन्य अवतारी लामाओं की खोज करने और उनकी नियुक्ति तथा शिक्षा-दीक्षा का एकमात्र अधिकार दलाई लामा और तिब्बती समुदाय का होगा। 

 

तिब्बत के लिए अमेरिकन दिलचस्पी के है रोचक कारण

एलन चिऊ जो एक अमेरिकी नागरिक है और विकीपीडिया के लिए तिब्बत संबंधी लेखों का संपादक करते है, क्वोरा में तिब्बत को लेकर अमेरिकन दिलचस्पी पर किये गये सवाल का बड़ा ही रोचक जवाब देते है। उनके अनुसार पश्चिम में 20वीं सदी से ही तिब्बत की रोमांटिक छवि रही है। 1903-1904 में तिब्बत के लिए यंगहसबैंड अभियान ने तिब्बत को ब्रिटिश नज़रिए से देखा और मिशन के फ़ोटोग्राफ़र जॉन क्लाउड व्हाइट की तिब्बत की तस्वीर ने इसके लुभावने परिदृश्य को कैमरे में कैद कर लिया। अंग्रेजों ने यह भी पाया कि तिब्बत में ही इसकी एकमात्र अत्यधिक विकसित संस्कृति है और यह बौद्ध धर्म का एक अद्भुत रूप है (जिसे पहले लामावाद और बाद में तिब्बती बौद्ध धर्म कहा जाता था) तिब्बती कला के अत्यधिक जटिल रूप, लामाओं के रहस्यमयी संस्कार और अपरिचित परिदृश्य आपको बताते हैं कि यह एक दूसरी दुनिया की जगह है। अपनी आत्मकथा के अनुसार यंगहसबैंड को ल्हासा छोड़ने से पहले ही धार्मिक जागृति हो गई थी। यहां बहुतेरे यूरोपीय और अमेरिकी आए, और उनमें से अधिकांशतः किसी तरह से प्रभावित नहीं तो मोहित होकर जरूर वापस लौटे। यह कोई संयोग नहीं है कि जब जेम्स हिल्टन ने 1933 में उपन्यास ’लॉस्ट होराइजन’ लिखा, तो इसकी पृष्ठभूमि तिब्बत में थी। यूटोपिया के लिए तो तिब्बत से बेहतर कोई जगह नहीं है, जो धर्मनिरपेक्ष समाज से बहुत दूर दुनिया के शीर्ष पर है। वे लिखते है कि मूल अमेरिकी लोगों ने अपनी मातृभूमि को यूरोपीय लोगों के हाथों खो दिया। जब वे मिले तो उनकी सभ्यता ने पश्चिम को प्रभावित नहीं किया। उन्होंने पश्चिम में वैसी ही कल्पना को प्रेरित नहीं किया। तिब्बती संस्कृति में रुचि मूल अमेरिकी संस्कृति में रुचि से अधिक आकर्षक लगती है।

 

निष्कर्ष

भारत के लिए निश्चित तौर पर यह नया अमेरिकी कानून उस अवसर को पा लेने की संतुष्टि होगी जिसकी कमी सालों से खटक रही है। लेकिन चीन को सीमा पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए भारत को इस हिमालयी क्षेत्र तिब्बत की स्वायत्ता के लिए अपनी भी कमर कसनी होगी। सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार विजय क्रांति के अनुसार आज भारत को भलीभाति समझ आ चुका है कि वह हिमालयी क्षेत्र में चीनी प्रभुत्व  का केवल इसीलिए शिकार हो रहा है, क्योंकि तिब्बत पर कब्जा जमाने के बाद चीनी सेनाएं भारत की सीमा तक आ पहुंची हैं। चीन अभी तिब्बत को अपनी छावनी की तरह इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में अमेरिका की तिब्बत पहल से न केवल भारत, बल्कि नेपाल और भूटान भी चीन के सामने अपने अपने राष्ट्रीय हित के लिए और ताकत से खड़े हो पाएंगे।

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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