भौगोलिक आकार और उसके राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभाव के मामले में भारत के छोटे पड़ोसी विषमता का सामना करते हैं, वहीं नई दिल्ली को दक्षिण एशियाई देशों को भौतिक लाभ प्रदान करने की अपनी और चीन की क्षमता के बीच मौजूद विषमता से निपटने की चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है, जो विकास सहायता के साथ-साथ अपनी सुरक्षा सहायता भी चाहते हैं।

दुनिया भर में हो रहे राजनैतिक रणनीतिक उठापटक के कठिन और जटिल दौर से भारत भी अछूता नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रम्प की व्हाइट हाउस में संभावित वापसी, रूस-यूक्रेन और इजरायल-हमास युद्ध, उत्तर कोरिया-चीन-ईरान-रूस के बीच गहराते संबंध निकट भविष्य में नये समीकरण की आहट दे रहे। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इजरायल-हमास युद्ध भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे (आईएमइइसी) पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। पश्चिमी प्रतिबंधों के तहत ईरान भी भारत के हित में नजर नहीं रहा है। यह क्षेत्र भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं, निवेश आवश्यकताओं और कनेक्टिविटी योजनाओं के लिए महत्वपूर्ण रहा है, साथ ही दुनिया में सबसे अधिक संख्या में अनिवासी भारतीयों का घर भी है। इन देशों से इतर भारत के लिए चिंता का विषय अपने छद्म मित्रों की अधिक है। सबसे बड़ा पड़ोसी देश चीन, सौम्य शक्ति या एक मिलनसार देश होने का कोई संकेत नहीं दिखाता है। बीजिंग की भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षा नई दिल्ली के अपने कुछ पड़ोसियों को उनके मूल हितों को अपने साथ जोड़े रखने के साथ-साथ बढ़ रही है। चीन के हालिया व्यवहार को देखते हुए, यह संभावना भी समाप्त होती सी लगती है कि चीन सीमा पर यथास्थिति बहाल करने का इच्छुक भी है।

विश्व के नजरिये से देखें तो चीन के खिलाफ एक प्रभावी लोकतांत्रिक प्रतिकार के रूप में भारत को ही देखा जाता है। इसका एक बड़ा कारण इसकी आर्थिक क्षमता, राजनीतिक लचीलापन और सर्वसम्मति पर वैश्विक दक्षिण की सबसे प्रभावशाली आवाज का होना है। कैपिटल इकोनॉमिक्स के पूर्वानुमानों के अनुसार, वियतनाम, फिलीपींस और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाएं अगले कुछ दशकों में प्रति वर्ष लगभग 4-5 की दर से बढ़ सकती हैं। भारत रैंकिंग में ऊपर उठने में सबसे आगे रहेगा। वास्तव में, यह 2026 तक जापान और जर्मनी को पीछे छोड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा और 2050 तक वैश्विक उभरते बाजारों की तुलना में यह तेजी से आगे निकलता दिखेगा।

 

भारत के लिए बीजिंग एक दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी बना हुआ है

दो प्रमुख भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों में से एक चीन, पाकिस्तान की तुलना में, कूटनीतिक, राजनीतिक और रणनीतिक श्रेष्ठता के मामले में भारत के दीर्घकालिक प्रभाव क्षेत्र के लिए सबसे महत्वपूर्ण नहीं तो मजबूत प्रतिद्वंद्वी की भूमिका में अवश्य नजर आता है। चीन के पास भारत के पड़ोसी देशों सहित अन्य दक्षिण एशियाई राज्यों में उन्नत सैन्य क्षमताएं, आर्थिक ताकत और प्रभाव है। भारत के दीर्घकालिक प्रभाव क्षेत्र में पाकिस्तान को छोड़कर सभी दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) के सदस्य देश शामिल हैं जिनमें अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश शामिल है। बीजिंग और नई दिल्ली दोनों देशों के बीच संबंधों में क्षेत्रीय विवाद, एशिया में राजनीतिक प्रभुत्व के लिए प्रतिद्वंद्विता होने के बावजूद सहयोग के लिए मजबूत प्रोत्साहन भी शामिल रहे हैं। चीन को संतुलित करने और रोकने के लिए पश्चिम के साझा प्रयास के रूप मेंपूर्व की ओर देखोनीति को महत्व दिया जाना भारत के लिए विकास के दरवाजे खोलता है लेकिन भारत पड़ोसियों के साथ एक ऐसे संबंध बनाना चाहता है जिसके द्वारा वह चीन के बीच क्षमता अंतर को कम कर एशियाई शक्ति संरचना को अपने पक्ष में बदलने के लिए आवश्यक आर्थिक, सैन्य और राजनीतिक संसाधन प्रदान कर सके।

भारत के लिए, सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा चीन और पाकिस्तान के बीच संबंध है। पश्चिम और पूर्व में दो परमाणु-सशस्त्र शत्रुओं का अस्तित्व एक रणनीतिक पहेली प्रस्तुत करता है। नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर पाकिस्तान का सैन्य विकास संभावित रूप से एलएसी में एक खाई पैदा कर सकता है, जिसका चीन फायदा उठाने को सदैव तत्पर रहता है। यही कारण है कि भारत अक्सर अपनी विवादित सीमाओं पर सुरक्षा स्थिति को शीर्ष पर रखने के लिए एलओसी और एलएसी पर अपने सैन्य कमांड, सिद्धांत और बल तैनाती में बदलाव करता रहता है। जहां तक भारत की अर्थव्यवस्था का सवाल है वह फिलहाल स्थिर और मजबूत है, जबकि चीन की अर्थव्यवस्था हाल फिलहाल भारी उथल-पुथल के अनुभवों से गुजर रही है। उनके संबंधित ऋण-से-जीडीपी अनुपात बहुत विपरीत हैं, चीन का ऋण-से-जीडीपी अनुपात 2023 में रिकॉर्ड 287.8 प्रतिशत पर पहुंच गया है, जबकि भारत का घटकर 18.7 प्रतिशत रह गया है। दोनों देशों के घरेलू मोर्चे पर मजबूत राष्ट्रवादी हित हैं। ये कारक एक महत्वपूर्ण सांठगांठ प्रस्तुत करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप तनाव और अस्थिरता होती है जो विदेशी नीतियों और संबंधों में बदल जाती है।

भू-राजनीतिक रूप से, भारत वन चाइना नीति में तिब्बत और ताइवान को ही लेकर ही असमंजस में नही, वह चीन के इर्द-गिर्द वियतनाम, मंगोलिया और दक्षिण कोरिया के साथ सुरक्षा संबंधों को मजबूत करने संबंधी मुद्दों में दुविधा में है। दुविधा यह भी है कि वह ऑस्ट्रेलिया, जापान, फ्रांस और सबसे बढ़कर संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे चीन से जुड़े अधिक शक्तिशाली देशों के साथ अपनी कड़ी सुरक्षा/सैन्य व्यवस्था का कैसे चाक चौबंद करें। भू-आर्थिक रूप से, भारत की दुविधा इस बात के इर्द-गिर्द अधिक घूमती नजर आती है कि वह क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी [RCEP], और चीन की समुद्री रेशम मार्ग योजना का जवाब कैसे दे।

 

तीन मोर्चों पर अभी भी चीन से बहुत पीछे है भारत

बुनियादी ढांचा, निवेश और विनिर्माण ये तीन र्मोचें भारत को चीन से पीछे रखते रहे है। चीन का विकास नए शहरों, हाई-स्पीड रेल लाइनों, हवाई अड्डों और बंदरगाहों के बुनियादी ढाँचे में क्रांति लाकर और विनिर्माण शक्ति को बढ़ावा देने से हुआ। 20 साल से दुनिया की फैक्ट्री बन राज कर रहे चीन ने अपने उत्पादन को घरेलू ही नहीं दुनिया भर में तेज़ी से और कुशलता से ले जाने की क्षमता का चमत्कारिक रूप दिखा विश्व भर को हैरान कर दिया। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 30 प्रतिशत ही अभी तक निवेश कर पाता है, जबकि चीन में यह लगभग 50 प्रतिशत है। विनिर्माण में भारतीय अर्थव्यवस्था का लगभग 20 प्रतिशत है; चीन का लगभग 30 प्रतिशत। पश्चिमी दुनिया के बाहर चीन के पास यकीनन सबसे अच्छा भौतिक बुनियादी ढांचा है जबकि भारत अभी भी एक गरीब देश की तरह दिखता है।

भारत में लोकतंत्र है, जबकि चीन में एक पार्टी वाला राज्य होने से त्वरित गति से काम होता है। उदाहरण के तौर पर जब चीनी सरकार हाई-स्पीड रेल लाइन बनाना चाहती है, तो वह बस जमीन का अधिग्रहण कर लेती हैं। इसक एवज में वह प्रतिकूल रूप से प्रभावित लोगों को स्थानांतरित कर मुआवजा दे देती हैं। जबकि भारत में राष्ट्रीय रेल प्रणाली का विस्तार और सुधार निश्चित रूप से राष्ट्रीय हित में कहा तो जायेगा लेकिन राज्य के स्वामित्व वाली भारतीय रेलवे यथास्थिति की रक्षा करने में अधिक दिलचस्पी दिखाती है, या कम से कम निर्णय लेने और लागू करने में बेहद लंबा समय लगा देगी। अंततः बहुत अधिक लोकतंत्री भावना भावी विकास की संभावनाओं को ठंडे बस्ते में डाल देती है। 

बावजूद इन बातों के भारत को विकास के मामले में अगला चीन कहा जा रहा है, इसकी वजह एक मूलभूत आयाम है जिनसे वह चीन से बहुत अलग देश हो जाता है-औश्र वह है जनसांख्यिकीय। चीन इतिहास का पहला ऐसा देश बनने जा रहा है जो अमीर होने से पहले बूढ़ा हो जाएगा। विशेषज्ञों की राय में अगले दशक में इसकी जनसंख्या 1.5 बिलियन से कुछ कम होगी और फिर सदी के मध्य तक धीरे-धीरे घटकर लगभग 1.3 बिलियन रह जाएगी। 2050 तक, चीन का निर्भरता अनुपात- यानी, कामकाजी उम्र के लोगों के सापेक्ष आश्रितों का प्रतिशत दोगुना होकर 70 प्रतिशत हो जाएगा। जाहिर है इससे देश के नवजात कल्याणकारी राज्य और संघर्षरत स्वास्थ्य प्रणाली पर भारी दबाव पड़ेगा। इसके उलट भारत चीन की तुलना में बहुत मजबूत स्थिति में है। 2050 तक, भारत जनसंख्या के मामले में चीन से बहुत बड़े अंतर से दुनिया का सबसे बड़ा देश होगा, जिसमें आश्चर्यजनक रूप से 1.7 बिलियन लोग होंगे - आज की तुलना में 400 मिलियन अधिक। भारतीय प्रजनन क्षमता अफ्रीकी मानकों को छोड़कर सभी के हिसाब से उच्च रहेगी, और यह अर्थव्यवस्था के लिए एक महान आधारभूत संसाधन होगा।

 

भारत की विदेश नीति में पड़ोस हमेशा से ही प्रमुख रहा

भारत के सामने दो तरह की विषमताओं से निपटने की दोहरी चुनौती है - एक अपने पड़ोसियों के साथ जो भौतिक रूप से कमज़ोर हैं और दूसरी चीन के साथ, जिसके पास भारत के पड़ोस में निवेश करने के लिए ज़्यादा पूंजी है। जहाँ भारत के छोटे पड़ोसी भारत के भौगोलिक आकार और उसके राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभाव के मामले में विषमता का सामना करते हैं, वहीं नई दिल्ली को दक्षिण एशियाई देशों को भौतिक लाभ प्रदान करने की अपनी और चीन की क्षमता के बीच मौजूद विषमता से निपटने की चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है, जो विकास सहायता के साथ-साथ सुरक्षा सहायता भी चाहते हैं। अपने पड़ोसियों के बीच प्रभाव रखने से भारत को क्षेत्रीय शक्ति होने का दर्जा मिलता है। इस तरह की सोच लंबे समय से भारत की पड़ोस नीति पर हावी रही है, हालांकि ये अलग-अलग रूपों में देखने को मिली।

इंडो-पैसिफिक में शक्ति के बदलते संतुलन और अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती महाशक्ति प्रतिद्वंद्विता ने इस त्रिकोण को और अधिक ध्यान में ला दिया है। दक्षिण एशिया के कुछ महत्वपूर्ण भू-रणनीतिक स्थानों, चाहे वह हिमालय हो या हिंद महासागर में नीति अनुपालन को प्रभावित करने और प्रभावित करने की चीन की मंशा और भौतिक क्षमताएं उसे भारत और अमेरिका दोनों के साथ पूरी तरह से विवादित बनाती हैं। इन सब बातों के मद्देनजर, चीन की अन्य पड़ोसी देशों के साथ बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (ठत्प्) के माध्यम से आर्थिक और रणनीतिक रुचि बढ़ती देख अपनी विदेश नीति में पड़ोस को सदैव प्रमुखता देने वाली नई दिल्ली ने लेकिन अब व्यापक भू-राजनीतिक महत्व ग्रहण कर लिया है।

इधर अमेरिका दक्षिण एशिया में चीन के प्रभाव का मुकाबला करने में रुचि रखता है किंतु वाशिंगटन इस क्षेत्र में चीन के निवेश की डॉलर दर डॉलर बराबरी करने में विफल हो रहा है। ऐसे में वह भारत जैसे साझेदार के साथ मिलकर विकल्प प्रदान कर सकता है। ऐसा प्रस्ताव भारत के हितों के लिए भी अनुकूल है, जिसका दक्षिण एशिया में सार्वजनिक वस्तुओं को प्रदान करने का इरादा उसकी क्षमता से मेल नहीं खा सकता है। नई दिल्ली और वाशिंगटन को पड़ोसियों के बीच रही बाधाओं का लाभ उठाना चाहिए ताकि क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाने के लिए गति बनाई जा सके।

 

निष्कर्ष

भारत और चीन अक्सर अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय व्यवस्था में रणनीतिक प्रभुत्व के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं। इसमें भी सीमा विवाद जैसी समस्या दिन पर दिन बड़ा होता जा रहा मुद्दा है। भारत के लिए, दक्षिण एशिया और हिंद महासागर किसी भी आक्रमण के खिलाफ रक्षा की पहली पंक्ति हैं। भारत चीन के कूटनीतिक और आर्थिक प्रभाव का मुकाबला करने के लिए विभिन्न कनेक्टिविटी परियोजनाओं में निवेश करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। चीन को भूलना नहीं चाहिए कि दक्षिण एशिया में भारत का बेजोड़ प्रभुत्व केवल इस क्षेत्र में उसकी स्थिति को खतरे में डालेगा, बल्कि तिब्बत के मामले में उसकी आंतरिक सुरक्षा को भी खतरे में डाल सकता है। दोनों देशों के बीच की यह प्रतिस्पर्धा अन्य दक्षिण एशियाई देशों को लाभ का सुअवसर प्रदान करता है। 

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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