अगस्त माह में अपने दौरे के दौरान चीनी विदेश मंत्री वांग यी द्वारा द्विपक्षीय संबंधों में एक-दूसरे के हितों और संवेदनशीलता के प्रति ’सम्मान’ और ’स्थिर प्रगति’ सराहना के बाद दोनों पक्षों के बीच विश्वास-निर्माण उपायों की घोषणा की गई जिसके तहत सीधी उड़ानें फिर से शुरू करना, आसान वीज़ा प्रक्रियाएँ और सीमा व्यापार सुगमता पर जैसे विषय केन्द्र में रहे। 2020 में महामारी के दौरान दोनों देशों के बीच उड़ानें रोक दी गई थीं और कुछ प्रत्यावर्तन उड़ानों को छोड़कर, नई दिल्ली और बीजिंग द्वारा कोविड-19 यात्रा प्रतिबंध हटाए जाने के बाद भी ये उड़ानें फिर से शुरू नहीं हुईं। दोनों देश अपनी लंबी, विवादित सीमा के कुछ हिस्सों के ’शीघ्र समाधान’ की संभावना तलाशने पर भी सहमत हुए, जो उनके बीच ऐतिहासिक तनाव का सबसे बड़ा स्रोत रहा है। 2025 के आरंभ में, चीनी राष्ट्रपति शी ने चीन-भारत संबंधों को “ड्रैगन-हाथी टैंगो” का रूप देने का आह्वान किया था - यह उन जानवरों का संदर्भ था जिन्हें अक्सर इन दो एशियाई दिग्गजों के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। इन घोषणाओं से कुछ माह पूर्व ही, जून में, बीजिंग ने भारत के तीर्थयात्रियों को तिब्बत के पवित्र स्थलों की यात्रा करने की अनुमति दी थी और भारतीयों के लिए कैलाश मानसरोवर मतलब हिंदू मोक्ष प्रदान करने वाला स्थल हैं। बौद्ध और जैन धर्म में भी इसे महत्वपूर्ण माना जाता है। और इसकी अनुमति रणनीति से इतर भावनात्मक और धर्मसंगत विषय का सम्मान करना है। इधर भारत ने भी पिछले महीने चीनी नागरिकों को वीज़ा जारी करना फिर से शुरू किया है।
दरअसल आक्रामक अमेरिकी व्यापार नीतियों ने अनजाने में ही भारत और चीन को करीब ला दिया अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय निर्यात पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने से, जिसे उन्होंने आंशिक रूप से भारत द्वारा रूसी तेल और हथियारों की निरंतर खरीद का हवाला देकर उचित ठहराया, दबाव बढ़ रहा है। ऐसे में भू-राजनीतिक तनावों के कारण वैश्विक शक्ति केंद्रों में पुनः संरेखण के साथ रूस, भारत और चीन (आरआईसी) के त्रिपक्षीय मंच में नए सिरे से कूटनीतिक रुचि देखी जा रही है। मास्को ने इस समूह को पुनर्जीवित करने के बारे में आशा व्यक्त की है और बीजिंग इस विचार का समर्थन करता प्रतीत होता है, वहीं नई दिल्ली खुलेपन का संकेत देने और रणनीतिक स्वायत्तता को प्रबंधित करने के बीच सावधानी से संतुलन बनाए रखने की कोशिश कर रही है।
भारत और चीन के बीच नया व्यापार सौहार्द कितना टिकाऊ
सात वर्षों में पहली बार चीन की यात्रा पर निकले भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की क्षेत्रीय सुरक्षा शिखर सम्मेलन के लिए तियानजिन यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब कुछ ही दिन पहले अमेरिका ने रूसी तेल खरीदना बंद करने से इनकार करने के कारण भारतीय निर्यात पर टैरिफ दोगुना करके 50: कर दिया था। इस विवाद ने भारत और अमेरिका के बीच वर्षों से चले आ रहे गहन सहयोग को, जो तकनीक और बीजिंग की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं का मुकाबला करने के साझा दृढ़ संकल्प पर आधारित था, उलट दिया है। जाहिर है ठगा सा महसूस कर रहा भारत भी अपने व्यापार में विविधता लाने के लिए आक्रामक रूप से अन्यत्र देखने के लिए भी मजबूर हो गया है। इस सम्बंध में दक्षिण एशिया विश्लेषक माइकल कुगेलमैन का इस बारे में कहना है कि अमेरिका पर भारतीयों का भरोसा टूट गया है।उन्हें यकीन नहीं है कि अमेरिकी अधिकारियों को इस बात का पूरा एहसास है कि उन्होंने इतने कम समय में कितना भरोसा गंवा दिया है। वहीं बेंगलुरू स्थित तक्षशिला संस्थान में इंडो-पैसिफिक अध्ययन प्रमुख मनोज केवलरमानी का मानना है कि इसमें कोई शक नहीं कि चीन में कुछ लोग भारत और अमेरिका के बीच व्यापार तनाव का मज़ा ले रहे हैं।
निःसंदेह चीन द्वारा भारत को उर्वरकों, दुर्लभ मृदा खनिजों और चुम्बकों, तथा सुरंग खोदने वाली मशीनों जैसी महत्वपूर्ण वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने के हालिया फैसले ने भारतीय उद्योग जगत को एक अत्यंत आवश्यक राहत प्रदान की है। हालाँकि, यह सकारात्मक घटनाक्रम एक गहरी, अधिक जटिल भू-राजनीतिक और आर्थिक वास्तविकता को छुपाता है। यह महत्वपूर्ण सामग्रियों और प्रौद्योगिकियों के लिए चीन पर निर्भरता भारत की की कमज़ोरी को भी रेखांकित करता है और यह एक ऐसी निर्भरता है जिसको समय आने पर चीन अपने सामरिक हितों की पूर्ति के लिए हथियार बनाने में संकोच नहीं करेगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि चीन वर्तमान में इस क्षेत्र में अग्रणी है, वैश्विक उत्पादन का लगभग 60-70: और रिफाइनिंग एवं प्रसंस्करण क्षमता में उससे भी बड़ा हिस्सा चीन के पास है। इससे बीजिंग को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अत्यधिक प्रभाव प्राप्त होता है और उसने इसका अपने लाभ के लिए सदैव इनका उपयोग करने में कोई संकोच नहीं किया है। भारत, जो अपनी दुर्लभ मृदा की ज़रूरतों का बड़ा हिस्सा चीन से आयात करता है, के लिए इसके निहितार्थ गहरे हैं। इसलिए ये नहीं भूलना भारी पड़ सकता है कि कोई भी व्यवधान, चाहे अस्थायी हो या दीर्घकालिक, स्वच्छ ऊर्जा से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माण और रक्षा उत्पादन तक, भारत के प्रमुख क्षेत्रों को पंगु बना सकता है।
पिछले महीने, नीति आयोग ने 24 प्रतिशत तक के चीनी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के लिए अनिवार्य पूर्वानुमति की आवश्यकता को हटाने की सिफारिश की थी। मौजूदा नियमों के अनुसार, चीनी संस्थाओं से होने वाले सभी निवेशों के लिए भारत सरकार से सुरक्षा मंज़ूरी आवश्यक है। ये प्रतिबंध पहली बार जुलाई 2020 में लागू किए गए थे, जब भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं और शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण को रोकने की आवश्यकता का हवाला देते हुए, भूमि सीमा साझा करने वाले देशों की कंपनियों को सरकारी खरीद अनुबंधों में भाग लेने से रोक दिया था। आर्थिक सर्वेक्षण 2024 में चीनी एफडीआई पर प्रतिबंधों में थोड़ी ढील देने का भी सुझाव दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि इससे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में भारत का एकीकरण बढ़ सकता है और उच्च निर्यात वृद्धि को समर्थन मिल सकता है।
भारत का चीन के साथ व्यापार असंतुलन चिंताजनक
चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा चिंताजनक रूप से उच्च बना हुआ है। वित्त वर्ष 2024-25 में, चीन से आयात बढ़कर लगभग 113-114 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया, जबकि भारतीय निर्यात घटकर लगभग 14-16 अरब अमेरिकी डॉलर रह गया, जिसके परिणामस्वरूप असंतुलन बढ़कर लगभग 99 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया, जिससे चीन दो साल के अंतराल के बाद भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार के रूप में अपनी स्थिति पुनः प्राप्त कर सकेगा। चीन को भारत के निर्यात में मुख्यतः संसाधन-आधारित, कम-प्रौद्योगिकी वाले उत्पाद-जैसे खनिज, रसायन और कृषि उत्पाद, शामिल हैं। ये निर्यात उस बास्केट का एक बड़ा हिस्सा कहे जा सकते हैं, जो व्यापार संरचना में गहरी संरचनात्मक कमज़ोरियों का संकेत देते हैं। विश्लेषकों का अनुमान है कि चीन को भारत की ‘अतिरिक्त निर्यात क्षमता’ लगभग 161 अरब अमेरिकी डॉलर है, विशेष रूप से मशीनरी, इलेक्ट्रॉनिक्स और वाहन जैसे क्षेत्रों में, जिनका अभी तक दोहन नहीं हुआ है। भारत उच्च-तकनीकी इनपुट जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, दूरसंचार हार्डवेयर, दवा सामग्री और नवीकरणीय ऊर्जा घटकों के लिए अभी भी चीन पर अपनी निर्भरता बनाये हुए है। यह निर्भरता सौर उपकरणों से लेकर एपीआई और भारी मशीनरी तक, महत्वपूर्ण क्षेत्रों में फैली हुई है।
कैपिटल इकोनॉमिक्स के उप-मुख्य उभरते बाजार अर्थशास्त्री शिलान शाह अपने एक नोट में लिखते है कि भारत-चीन संबंधों में उल्लेखनीय सुधार की संभावना पर संदेह करने के कई कारण हैं, जिसमें यह जोखिम भी शामिल है कि इन पहलों से अमेरिका के साथ भारत के तनाव और बढ़ सकते हैं। उनका मानना है कि चीन से सस्ते आयातों की बाढ़ भारत के घरेलू उद्योग को मजबूत करने के प्रयासों को कमजोर कर रही है और मजबूत संबंधों में सबसे बड़ी बाधा भारत के भीतर यह धारणा है कि चीन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। कैपिटल इकोनॉमिक्स, चीन के प्रति भारत के इन पहलों को भू-राजनीतिक सुरक्षा बढ़ाने के प्रयास के रूप में देखता है, लेकिन संबंधों में सुधार की कुछ सीमाएँ भी देखता है।
पड़ोसी एकता पर अमेरिकी रणनीतिक हताशा
दो क्षेत्रीय पड़ोसियों के बीच संबंधों में गर्मजोशी देख अमेरिका की तीखी प्रतिक्रिया का आना जायज है और ये तब जबकि भारत अमेरिका का पुराना मित्र है और अमेरिका उसे एशिया में चीन के प्रभाव के खिलाफ एक बफर के रूप में देखता आया है। ये कसमसाहट इस तरह से भी देखी जा सकती है कि ट्रंप ने रूसी तेल की खरीद के लिए भारत पर दंड स्वरूप ‘द्वितीयक शुल्क’ लगा दिया, जबकि शुक्रवार को उन्होंने रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदार चीन पर भी ऐसा ही शुल्क लगाने से इनकार कर दिया, जबकि वाशिंगटन और बीजिंग आगे व्यापार वार्ता में अभी लगे ही हुए हैं। दूसरी तरफ ट्रंप के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ में प्रकाशित एक कॉलम में भारत की रूसी तेल खरीद पर हमला करते हुए इसे ‘अवसरवादी और बेहद विनाशकारी’ कदम कहते है। वह लिखते है, यह दोतरफा नीति भारत को वहीं चोट पहुँचाएगी जहाँ उसे चोट पहुँचती है। अगर भारत चाहता है कि उसे अमेरिका का रणनीतिक साझेदार माना जाए, तो उसे अमेरिका की तरह व्यवहार करना शुरू करना होगा। दरअसल जब देश अमेरिकी हितों के साथ टकराते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया कूटनीतिक समाधानों के बजाय दंडात्मक उपायों को बढ़ावा देने लगती है। देखा जाए जो सदा से एक के बाद एक आने वाली अमेरिकी सरकारों ने भारत को अपना एक महत्वपूर्ण सहयोगी बताया है, उसकी लोकतांत्रिक संस्थाओं की प्रशंसा की है, और चीन के प्रतिकार के रूप में उसकी भूमिका का समर्थन किया है। लेकिन इन गर्मजोशी भरे शब्दों के पीछे एक कड़वी सच्चाई निहित रही और वह यह कि अमेरिका भारत को अपने आप में एक साझेदार के रूप में कम और बीजिंग के साथ अपनी व्यापक प्रतिद्वंद्विता में एक सुविधाजनक साधन के रूप में अधिक देखता आया है।
विश्लेषकों का मानना है कि आक्रामक अमेरिकी व्यापार नीतियों ने अनजाने में ही भारत और चीन को करीब ला दिया है। दरअसल संबंधों में यह सतर्क पुनर्संतुलन भावनाओं में नहीं, बल्कि आवश्यकता से प्रेरित है खासकर बढ़ते अमेरिकी दबाव के मद्देनजर। नियंत्रण रेखा (स्।ब्) के बर्फीले विस्तार में आमने-सामने खड़ी सेनाओं और दोनों अर्थव्यवस्थाओं पर अमेरिकी टैरिफ के भारी बोझ की पृष्ठभूमि में, भारत और चीन एक रणनीतिक सुधार की संभावना तलाश रहे हैं। पाँच वर्षों में पहली बार, भारत और चीन लिपुलेख, शिपकी ला और नाथू ला के माध्यम से ऐतिहासिक हिमालयी व्यापार मार्गों को फिर से खोलने की तैयारी कर रहे हैं। लंबे समय से निष्क्रिय ये पर्वतीय गलियारे केवल वाणिज्य का प्रतीक नहीं हैं; इनमें परस्पर निर्भरता की एक नई नींव डालने की क्षमता भी है। एक तरह से नये तरह से विकसित होते ये संबंध एक बहुध्रुवीय विश्व में स्वायत्तता स्थापित करने और द्विआधारी विकल्पों में बँधे रहने से बचने की इच्छा को दर्शाता है। बीजिंग के लिए, भारत के साथ तनाव कम करने से दो मोर्चों पर रणनीतिक दबाव का जोखिम कम होता है, जिससे प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका से निपटने के लिए संसाधन मुक्त होते हैं। दिल्ली के लिए, चीन के साथ संबंधों को संतुलित करना, रणनीतिक लचीलेपन को बनाए रखते हुए, अमेरिकी अनिश्चितता के लिए एक प्रतिकार प्रदान करता है। यह अभिसरण व्यावहारिक है, वैचारिक नहीं।
निष्कर्ष
कहने की बात नहीं कि भारत और चीन का संरचनात्मक असंतुलन और निर्भरताएँ गहरी जड़ें जमाए हुए हैं और इनके लिए सुविचारित नीतिगत कार्रवाई की आवश्यकता है। यकीनन कूटनीतिक गर्मजोशी और व्यापारिक संकेत की वास्तविकता का स्वागत आगे बढ़कर किया जाना चाहिए लेकिन दो देशों के बीच पुरातन समय से चली आ रही सामरिक स्थितियों की भी अनदेखी करना हितकारी नहीं होता। इसलिए एक स्थायी, समतापूर्ण व्यापार साझेदारी के लिए, भारत को वर्तमान कूटनीतिक तनाव से परे, अपनी निर्यात क्षमता को सक्रिय रूप से मजबूत करना होगा, व्यापार संरचना में विविधता लाते हुए चीनी आयात पर निर्भरता कम करने के साथ-साथ संतुलित रणनीति पर काम करना होगा।
Author
Rekha Pankaj
Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.