नवंबर के बीच से, एक के बाद एक आए ट्रॉपिकल तूफ़ानों और तेज़ मॉनसून सिस्टम की वजह से साउथ-ईस्ट एशिया में विनाशकारी बाढ़ और भूस्खलन हुआ है। सैटेलाइट इमेज से पता चला कि उत्तरी प्रांत आचेह में प्यूसांगन नदी का एक हिस्सा दोगुना चौड़ा हो गया है, जिससे उसके किनारे डूब गए हैं, खासकर एक छोटे बांध के आसपास। इमारतों तक जाने वाली सड़कें और पक्की सड़कें बाढ़ से बह गईं। बाढ़ और भूस्खलन से श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम और मलेशिया सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में रहे, जहाँ रिकॉर्ड तोड़ बारिश, तूफ़ानी लहरें और बड़े पैमाने पर बाढ़ ने लोगों को संभलने का मौका नहीं दिया। श्रीलंका में 1.1 मिलियन से ज्यादा लोग बेघर हो गए हैं। इंडोनेशिया की डिज़ास्टर मैनेजमेंट एजेंसी के अनुसार तो नॉर्थ सुमात्रा, वेस्ट सुमात्रा और आचेह प्रांतों में लगभग 1.2 मिलियन लोग बेघर हो गए हैं।
कुछ देशों में तो ट्रॉपिकल तूफ़ानों से स्थिति और भी खराब हो गई। टाइफून कोटो से फिलीपींस में भयंकर बाढ़ और लैंडस्लाइड हुए, साथ ही साइक्लोन सेन्यार, जिसने इंडोनेशिया के उत्तरी सुमात्रा को बुरी तरह प्रभावित किया, और साइक्लोन दितवाह, जिसने श्रीलंका में तबाही मचाई। इंडोनेशिया के गर्म मौसम में तो ज्यादा बार और तेज़ तूफ़ान देखने को मिला। वियतनाम वैसे भी पिछले कुछ सालों के सबसे खतरनाक तूफ़ानी मौसम के मिले-जुले असर का सामना कर रहा है। अक्टूबर से आ रहे लगातार तूफानों ने देश के बड़े हिस्सों में बाढ़ ला दी है और नुकसान पहुंचाया है, खासकर उत्तरी और मध्य प्रांतों में। ऑस्ट्रेलिया में ’सेंट्रल क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी में एनवायर्नमेंटल ज्योग्राफी’ के एड्जंक्ट प्रोफेसर स्टीव टर्टन ने कहा कि पूरे इलाके में एक बात कॉमन रही कि लोग इस भारी बारिश का सामना करने के लिए बेहद संघर्ष कर रहे थे, जिससे लैंडस्लाइड जैसी दूसरी समस्याएं पैदा हुईं। भारत और पाकिस्तान के पहाड़ी इलाकों में तेज़ बाढ़ में कई गाँव पूरे के पूरे डूब गए, जिससे 430 से ज््यादा लोग मारे गए हैं। मरने वालों में ज्यादातर लोग पाकिस्तान के थे, जहाँ अगस्त से अब तक उत्तर-पश्चिमी प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में 370 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि ये आपदाएँ शक्तिशाली मौसम प्रणालियों के एक असामान्य मेल के कारण हुईं, जिसमें चक्रवात दितवाह और सेन्यार के साथ-साथ मज़बूत उत्तर-पूर्वी मानसून भी शामिल था। यह भी देखा गया है कि हवा के तापमान में हर 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी से हवा में लगभग 7 प्रतिशत से अधिक नमी आने का मतलब है कि ग्लोबल वार्मिंग से बारिश की हालत और अधिक खराब होएगी। वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि यह नुकसान दिखाता है कि क्लाइमेट चेंज दुनिया भर में, खासकर ट्रॉपिकल एशिया में, खराब मौसम को कैसे बढ़ा रहा है, जहाँ बारिश का मौसम लंबा और भयावह रूप से तेज़ होता जा रहा है।
दक्षिण-पूर्व एशिया धरती के सबसे ज्यादा क्लाइमेट के लिहाज़ से कमज़ोर इलाकों में से एक है। यह उन क्षेत्रों में से एक है जहाँ द्वीपों की भरमार हैं। इसका सीधा से मतलब है बहुत लंबी तटरेखाएँ। यही कारण है कि इसे सबसे अधिक खतरनाक ट्रॉपिकल तूफ़ानों, समुद्र के बढ़ते लेवल का सामना करना पड़ता है जिससे समुद्र तटों और शहरों को खतरा होता है, और बड़े पैमाने पर बाढ़ और गंभीर सूखे का सामना करना पड़ता है। ’जर्मनवॉच’ के हालिया ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के अनुसार, 2000-2019 तक क्लाइमेट रिस्क से प्रभावित टॉप 10 देशों में से तीन म्यांमार, फिलीपींस और थाईलैंड हैं।
दक्षिण पूर्व एशिया में जलवायु परिवर्तन तेज़ी से बढ़ रहा है
दरअसल क्लाइमेट चेंज की वजह से “रेन बॉम्ब्स” या बादल फटने की घटनाएँ बढती जा़ रही हैं। इसकी प्रमुख वजह औद्योगीकरण और शहरीकरण का त्वरित गति से बढ़ना है। दक्षिण-पूर्व एशिया की अर्थव्यवस्थाओं में वियतनाम, इंडोनेशिया, थाईलैंड, फिलीपींस, मलेशिया ने गरीबी कम करने और निवेश आकर्षित करने के लिए तेज़ औद्योगिक विकास किया है, जिसके परिणामस्वरूप जीवाश्म-ईंधन पर आधारित मैन्युफैक्चरिंग बढ़ी, समुद्र तटों के पास औद्योगिक क्षेत्रों के विस्तार की गति तेज हुई। फिर ऊर्जा की खपत में भारी वृद्धि होने के कारण शहरी हीट-आइलैंड प्रभावित हुए। ’साउथईस्ट एशिया एनर्जी आउटलुक 2024’ रिपोर्ट बताती है कि 2010 से साउथईस्ट एशिया की बढ़ती एनर्जी डिमांड का लगभग 80ः हिस्सा फॉसिल फ्यूल (खासकर कोयले) से पूरा हुआ है, और इस क्षेत्र की आधी बिजली अभी भी कोयले से ही बनती है।
कई आसियान देश अभी भी बिजली के लिए कोयले पर बहुत ज्यादा निर्भर रहते हैं। इसकी वजह है कि कोयला सस्ता है और स्थिर बेसलोड पावर देता है। इंडोनेशिया और वियतनाम में इसके घरेलू भंडार उन्हें आर्थिक फायदे पहंुचाते हैं जैसे विदेशी निवेश ( चीन और जापान कोयला प्लांट को फंड करने वाले पहले देश है ) लेकिन इसका नुकसान यह है कि यह देशों को अघिक प्रदूषण वाले एनर्जी सिस्टम में फंसा देता है। एक दूसरी वजह है जंगलों की कटाई और ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव की प्रक्रिया। दुनिया में, दक्षिण पूर्व एशिया में जंगलों की कटाई की दर सबसे अधिक आंकी गई है। इनके जंगलों में दुनिया की कुछ सबसे शानदार ट्रॉपिकल बायोडायवर्सिटी पाई जाती है, जबकि आस-पास के महासागरों में अनोखे जीव-जंतु रहते हैं। फिर भी, जंगल कटाई, पानी और हवा का प्रदूषण, बाहरी प्रजातियों का हमला, शिकार और शहरी फैलाव के कारण कई स्थानीय जानवर और पौधे अब खतरे में हैं या गंभीर रूप से खतरे में हैं।
जंगल कटाई के पीछे के मुख्य कारक पाम तेल का विस्तार (इंडोनेशिया, मलेशिया), लकड़ी काटना (कानूनी और गैर-कानूनी), झूम की खेती, इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर जैसे सड़कें, बांध, रेल का विस्तार। ये कारण कार्बन सिंक को कम करते हैं और बार-बार होने वाले धुंध में योगदान करते हैं जो सीमाओं के पार तक फैलती है। औद्योगिक नीतियां जो बनी भी वह पहले विकास के लिए, बाद में पर्यावरण प्रबंधन के लिए बनाई गईं।
सरकारें जलवायु परिवर्तन मुद्दे को नज़रअंदाज़ करती दिखती हैं
दशकों से, सरकारें जलवायु नियमों को विकास में बाधा मानती आई है, चाहे वह किसी भी देश की सरकार हो। उनके लिए स्थिरता से अधिक जरूरी चीज है आर्थिक विकास को प्राथमिकता देना। ’पहले विकास, बाद में सफ़ाई’ ही इन सबका अनौपचारिक सिद्धांत रहा है। इसीलिए तो सबसे पहले ऊर्जा सुरक्षा के डर से कोयला राजनीतिक रूप से स्वीकार्य हो गया। तेल और कोयला दोनों मिलकर इस क्षेत्र की एनर्जी डिमांड का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा पूरा करते हैं, जबकि नेचुरल गैस का योगदान लगभग पाँचवाँ हिस्सा है। 2023 में, कोयले से इस क्षेत्र की आधी बिजली बनी, जो पावर सेक्टर के 80: एमिशन के लिए ज़िम्मेदार था, साथ ही इसने इंडस्ट्री की 30: एनर्जी डिमांड को भी पूरा किया, जिसमें इंडोनेशिया में निकेल प्रोडक्शन में बढ़ोतरी भी शामिल है। दक्षिण पूर्व एशिया, मिडिल ईस्ट के साथ उन कुछ क्षेत्रों में से एक है जहाँ जीडीपी और एमिशन एक साथ बढ़ रहे हैं, यह इस बात का संकेत है कि दक्षिण पूर्व एशिया का आर्थिक विकास अभी भी बहुत ज्यादा कार्बन इंटेंसिव है।
देखने की बात तो ये है कि जब राजनीतिक प्रोत्साहन लंबी अवधि की मज़बूती के बजाय छोटी अवधि के विकास को बढ़ावा देने लगे, तो पर्यावरण मंत्रालय की परवाह कौन करें। ऐसी परिस्थितियों मे ंतो इसे आर्थिक मंत्रालयों से कमज़ोर सिद्ध होना ही है। कई आसियान देशों में बिखरा हुआ शासन और कमजोर प्रवर्तन नीतियां भ्रष्टाचार और कमजोर रेगुलेटरी निगरानी का शिकार है। हाल ही में एक आर्टिकल ’आसियान देशों में क्लाइमेट चेंज को सीमित करने की इच्छाशक्ति की कमी क्यों?’ में यह तर्क दिया गया है कि ज्यादा कमज़ोरी के बावजूद, कई सरकारें कोयला-आधारित पावर प्लांट में निवेश करना जारी रखे हुए हैं, जो क्लाइमेट जोखिमों को देखते हुए एक विरोधाभासी रुख है। जबकि यह क्षेत्र दुनिया भर में क्लाइमेट चेंज के लिए सबसे ज्यादा कमज़ोर इलाकों में से एक है। म्यांमार, फिलीपींस, थाईलैंड और वियतनाम पहले से ही दुनिया के उन 10 देशों में शामिल हैं, जिन्हें पिछले 20 सालों में क्लाइमेंट से जुड़ी मौसम की घटनाओं से इंसानी और चीज़ों के मामले में सबसे अधिक नुकसान हुआ है।
ओवरलैपिंग पर्यावरण एजेंसियां, मौजूदा कानूनों को ठीक से लागू न करना, स्थानीय सरकारों में सीमित तकनीकी क्षमता जैसी आम दिक्कतें है जिनके कारण कागजों पर पर्यावरण के अनुकूल नीतियां को लागू कर पाना असमान होता है। जलवायु परिवर्तन कभी एक बड़ा चुनावी मुद्दा नही बनता। बुनियादी मसले ही राजनीतिक बहस पर हावी रहते हैं। नतीजतन, गहरे डीकार्बाेनाइजेशन को राजनीतिक रूप से ज़रूरी नहीं माना जाता है। नतीजतन, गहरे डीकार्बाेनाइजेशन को राजनीतिक रूप से ज़रूरी नहीं माना जाता है।
नजरिया बदल रहा लेकिन संकट की तुलना में बहुत कम
कई देश बड़े एनर्जी बदलाव करने से पहले जिन चीज़ों का इंतज़ार करते हैं, उनमें ग्रीन फाइनेंसिंग, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, मल्टीलेटरल क्लाइमेट फंड जैसी देश के आर्थिक ग्रोथ के लिए आवश्यक जरूरतें है। लेकिन इसकी वजह से क्लाइमेंट जैसी चीजों की टाइमलाइन धीमी हो जाती है और कभी-कभी यह कुछ न करने का बहाना बन जाता है।
ऐतिहासिक नज़रअंदाज़ी एक बड़ा सच है, लेकिन यह फिर भी क्षेत्र धीरे-धीरे बदल रहा है। जैसे इंडोनेशिया ने कुछ शर्तों के साथ कोयले के विस्तार को खत्म करने का वादा किया है। वियतनाम सोलर/पवन ऊर्जा अपनाने में लीडर बन रहा है। सिंगापुर क्लाइमंेट एडैप्टेशन और कार्बन मार्केट में निवेश कर रहा है। फिलीपींस और थाईलैंड आपदा-जोखिम कानूनों को मज़बूत कर रहे हैं। दक्षिण-पूर्व एशियाई सरकारों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य तय किए हैं और 2021 में ग्लासगो कॉप 26 में अपडेट दिए हैं। 10 में से आठ देशों ने इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने के लिए 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन हासिल करने का लक्ष्य रखा है। इंडोनेशिया ने 2060 तक नेट ज़ीरो हासिल करने का वादा किया है, जबकि फिलीपींस ने अभी तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य के लिए कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई है। थाईलैंड की तरह, मलेशिया ने भी कोयला पावर प्लांट का निर्माण रोक दिया है और घोषणा की है कि वह अपने मौजूदा कोयला प्लांट को धीरे-धीरे बंद कर देगा और इसके बजाय अपने घरेलू गैस संसाधनों का इस्तेमाल करेगा। फिर भी, ये कोशिशें अक्सर संकट के पैमाने को देखते हुए अभी बहुत पीछे हैं।
और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ज़ोरदार एडैप्टेशन की कोशिशों के बावजूद, क्लाइमेट चेंज के अर्थव्यवस्थाओं, पर्यावरण और स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर और भी खराब होते रहेंगे। जीएचजी उत्सर्जन को कम करने के लिए सिर्फ़ मिलकर किया गया ग्लोबल एक्शन ही दुनिया को उसके मौजूदा खतरनाक रास्ते से हटा सकता है। इसके लिए सभी देशों, विकसित और विकासशील, को कॉमन लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारी के सिद्धांत के तहत मिलकर काम करना होगा। क्लाइमेट चेंज के ग्लोबल समाधान का एक ज़रूरी हिस्सा यह होगा कि विकसित देशों से विकासशील देशों को मिटिगेशन और एडैप्टेशन दोनों के लिए पर्याप्त फाइनेंशियल रिसोर्स और टेक्नोलॉजिकल जानकारी दी जानी चाहिए।
निष्कर्ष
देखा जाए तो दक्षिण पूर्व एशिया की जलवायु चुनौती तकनीकी नहीं है-यह राजनीतिक और आर्थिक कारणो पर अधिक केंद्रित है। मुख्य मुद्दा अल्पकालिक विकास प्राथमिकताओं और दीर्घकालिक जलवायु लचीलेपन के बीच टकराव का है। सरकारें अक्सर जलवायु नीति को महंगे सौदे, राजनीतिक रूप से जोखिम भरे कारवाई और आर्थिक रूप से बाधा डालने वाली योजना के रूप में अधिक देखती है। जिसके परिणामस्वरूप सिस्टम में एक बारगी बदलाव होने के बजाय धीरे-धीरे बदलाव होते हैं। जाहिर है जब तक जलवायु जोखिम को आर्थिक जोखिम के रूप में नहीं माना जाता, तब तक यह क्षेत्र बढ़ते संकटों-बाढ़, सूखा, धुंध और तटीय नुकसान का सामना करता रहेगा। आखिरकार आपदाओं की वजह से हो रहे नुकसान को देखते हुए कोई भी सरकार पर्यावरण को मामूली मुद्दा कैसे मान सकती?
Author
Rekha Pankaj
Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.