पिछले कुछ महीनों से चीन की अर्थव्यवस्था में कमजोरी के संकेत लगातार बढ़ते नजर आ रहे है। आंकड़ें बता रहे है कि चीन में इस समय जीडीपी ग्रोथ की गति उम्मीदों से कमतर नजर आ रही है। चीनी समाचार एजेंसी शिन्हुआ से जारी समाचार पर गौर करे तो सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी की शीर्ष निर्णय लेने वाली संस्था पोलित ब्यूरो भी मानती है कि वर्तमान में चीन की अर्थव्यवस्था नई कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना कर रही है, जो मुख्य रूप से अपर्याप्त घरेलू मांग के साथ-साथ गंभीर और जटिल बाहरी समस्याओं से उत्पन्न हो रही हैं। एएफपी सर्वेक्षण में भी अनुमानित 7.1 प्रतिशत की तुलना में चीन इस समय बहुत कमजोर स्थिति में है। जबकि राष्टीय सांख्यिकी ब्यूरो का मानना है कि दुनिया की नंबर दो अर्थव्यवस्था में गिने जाने वाले चीन ने अप्रैल-जून में 6.3 प्रतिशत की दर से बढोत्तरी की है, जो पिछले तीन महीनों की तुलना में तेज है। जहां तक भारत का सवाल है आकंडे-विश्लेषणों के नजरिए से देखा जाए तो कोविड के बाद के सालों में भारत की स्थिति फिर चीन से बेहतर लगती है।
रिकवरी को बेताब चीनी अर्थव्यवस्था
कोविड-19 के बाद के सालों में धीमी, लेकिन मजबूत व्यापारिक शुरुआत के बावजूद, देश ही नहीं विदेशों में भी कमजोर मांग के चलते चीन की अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है। घरेलू संपत्ति बाजार में लंबी मंदी , फिर शंघाई में दो महीने के लॉकडाउन ने मध्य चीन के बड़े क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को और भी बुरी तरह बाधित कर दिया था। महामारी की आपदा से जूझ रहे चीनी नागरिक सतर्क हो गये है। वे खर्च से ज्यादा बजत की की ओर अधिक घ्यान दे रहे । घटती जनसंख्या और उत्पादकता में धीमी चाल ने चीन को संकट में डाल दिया। सिंघुआ विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर सून लिपिंग के अनुसार लोग पैसे बचा रहे हैं और खर्च में कटौती कर रहे हैं, महत्वाकांक्षी उद्यमी दीर्घकालिक योजना में निवेश करने में अनिच्छुक हैं, क्योंकि वे असहज महसूस कर रहे हैं। उनका सुझााव है कि सरकार को एक ऐसा कारोबारी माहौल बनाने की जरूरत है जो लोगों को भरोसा दे सकें। हालांकि चीनी सरकार उत्पाद और उपभोक्ता को रिझाने के लिए नई-नई योजनाओं देकर उन्हे आकर्षित करने का भरसक प्रयास कर रहे है। किंतु स्थिति में फिलहाल कोई बदलाव नजर आता दिख नहीं रहा। आईएमएफ के एशिया और प्रशांत विभाग में एक वरिष्ठ अर्थशास्त्री डिएगो ए. सेर्डेइरो एवं आईएमएफ ¼चीन ) मिशन प्रमुख सोनाली जैन-चंद्रा चीन के लिए जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहते है कि चीन को अर्थव्यवस्था में सुधार सुनिश्चित करने और संतुलित, हरित और समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिए व्यापक व्यापक आर्थिक नीतियों और संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है।
इधर पेकिंग विश्वविद्यालय के वित्त प्रोफेसर माइकल पेटिस चीन को लेकर निराशावादी विचार रखते है। उनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय निवेशकों को चीन को पहले की तुलना में अलग ढंग से देखने की जरूरत है। जब चीन दो अंकों की दर से बढ़ रहा था, तब अर्थव्यवस्था के गरीब हिस्से भी बढ़ रहे थे। लेकिन अब, चीन की कहानी खत्म हो गई है और यह एक सामान्य अर्थव्यवस्था से अधिक कुछ नहीं। आने वाले वक्त में इसके कुछ क्षेत्र अच्छा प्रदर्शन करेंगे, तो कुछ बहुत खराब प्रदर्शन करेंगे। 2015 में बीजिंग की ‘मेड इन चाइना 2025‘ योजना की घोषणा के बाद राष्ट्रीय औद्योगिक नीतियां तेजी से एक प्रमुख नीति और राजनीतिक मुद्दा बन गई हैं, जबकि चीन के आर्थिक विकास मॉडल के दीर्घकालिक प्रदर्शन और स्थिरता का सटीक आकलन करने के लिए औद्योगिक नीति के प्रभाव का आकलन करना अब जरूरी हो गया है। कुछ विशेषज्ञों की राय में चीन की औद्योगिक नीति की वास्तविकता का आज तक गंभीरता से अध्ययन नहीं किया गया है। इससे इतर, आईएमएफ के हालिया विश्लेषण के अनुसार, जब चीन की विकास दर 1 प्रतिशत अंक बढ़ती है, तो अन्य देशों की वृद्धि लगभग 0.3 प्रतिशत अंक बढ़ जाती है। यह रेखांकित करता है कि कैसे घरेलू सुधार चीन की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे सकते हैं और दूसरों की भी।
अर्थव्यवस्था की दौड़ में भारत की स्थिति बेहतर
चीन की धीमी पड़ती विकास दर के बीच, भारत की ओर देखें तो वह उतना परेशान नहीं है जितना कि चीन। पश्चिम में कई आशावादी यह दावा करते नजर आते है कि भारत अगर सही तरीके से अपने क़दम उठाता रहा तो अगले कुछ सालों में वह चीन की जगह ले सकता है। फोकस इकनामिक्स के हालिया ताजा अपडेट पर गौर करें तो भारत 2026 तक ब्रिटेन को पछाड़कर 5.0 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की नाममात्र जीडीपी के साथ दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार है। वह यह भी दावा करता है कि 2026 तक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि औसतन 6: प्रति वर्ष से अधिक रहेगी। बीबीसी के एक आलेख में ’व्हार्टन’ स्कूल (पेंसिलवेनिया युनीवर्सिटी) के पूर्व डीन जेफ्री भारत और चीन की आर्थिक प्रतिस्पर्धा को लेकर अलग ही तर्क देते है। वे मानते है कि आने वाले सालों में भारत की स्थिति चीन के मुकाबले काफी बेहतर स्थिति में होगी। उनके इस अनुमान के पीछे के कारणों को देखें तो अधिक अनुकूल जनसांख्यिकी इसका एक महत्वपूर्ण वजह बनेगी। 2050 तक चीन में ऐसे लोगों की आबादी 70 फ़ीसदी हो जाएगी, जो कामकाजी लोगों पर निर्भर रहेंगे। जबकि 2050 तक 1.7 बिलियन लोगों की आबादी के साथ भारत जनसंख्या के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देश होगा. लेकिन निर्भरता के मामले में वह चीन से बहुत बेहतर स्थिति में होगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में तेज़ी से आगे बढ़ती नजर आ रही है। हाल ही में प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी ने भी अगले कुछ सालों में इसे नंबर 3 में पहुंचा देने की बात कही है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि भारत अपनी बेसिक से लेकर माध्यमिक-उच्चतर तक की शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं में करें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा के लिए एक अतिरिक्त भाषाई ज्ञान के तौर पर अंग्रेजी एक लेशन भर रहे। उसके बाद की विशिष्ट डिग्री हेतु ली जा रही उच्च शिक्षा का माध्यम भले ही अंग्रेजी हो । साथ ही देशीय उत्पादों को बढ़ावा देने हेतु बैंक ऋृण के तौर तरीकें, जो कि अभी भी बेहद जटिल है, को सुविधाजनक बनानो की जरूरत है। जिस दिन भारत ने सकल घरेलू उत्पाद के निर्माण पर अपनी पैठ बना ली उस दिन उक्त दावे को साकार करने से उसे कोई रोक नहीं सकता।
आर्थिक दौड़ में एक दूसरे के पूरक भारत-चीन
इसी संदर्भ में बीएफए (बोआओ फोरम फॉर एशिया) की ’एशियाई आर्थिक परिदृश्य और एकीकरण प्रगति’ शीर्षक वाली एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, कोई संदेह नहीं है कि चीन और भारत का व्यापार प्रदर्शन विकसित देशों के मानकों से प्रभावशाली रहा है। अपेक्षाकृत कम समय में, दोनों देश विश्व व्यापार में प्रमुख खिलाड़ियों के साथ-साथ उल्लेखनीय बाहरी निवेशकों के रूप में उभरे हैं। आरंभ में निम्न-प्रौद्योगिकी उत्पाद के बाद, दिग्गजों ने लगातार मध्यम और उच्च-प्रौद्योगिकी उत्पादों के साथ-साथ स्किल बेस्ड सेवाओं में तरक्की की है। दोनों की तुलना अक्सर की जाती रही है। चीन निर्माताओं के विश्व व्यापार में आगे बढ़ गया है और दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक के रूप में अमेरिका को चुनौती देने की कगार पर है। भारत का निर्यात विस्तार मुख्य रूप से सेवाओं द्वारा संचालित किया जाता है, और यह विनिर्मित निर्यात की एक श्रृंखला में पकड़ बनाने का भरपूर प्रयास कर रहा है। वैश्विक आर्थिक मंदी की आशंका के बावजूद इनका प्रदर्शन काबिले तारीफ हैं। वाशिंगटन स्थित अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के आंकड़ों का हवाला देते हुए रिपोर्ट यह भी कहती है कि चीन और भारत इस साल दुनिया की आधी वृद्धि में योगदान देंगे।
इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर दोनों अर्थव्यवस्थाएं प्रतिस्पर्धी तौर खड़ी होने के बजाय व्यापारिक साझेदारी और कूटनीतिक समझदारी के साथ काम करे तो यह एशियाई अर्थव्यवस्था को मजबूत कंधे देकर विश्व पटल पर अनूठी छाप छोड़ेगा। अगर आप ऐतिहासिक तौर पर गौर करेगे तो चीन और भारत में कई समानताएं नजर आती है। पुरातन संस्कृति-सभ्यता की धरोहरों से समृद्ध दोनों देश घनी आबादी वाले देश होने के बावजूद दो बड़ी समानांतर उन्नतिशील एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के रूप में उभरे है। युद्ध और ग़ुलामी से आज़ाद होने के बाद लगभग शून्य से अपनी अर्थव्यवस्था से शुरुआत करने वाले ये दोनों देश आज पश्चिम के लिए चुनौती है। ये भी सत्य है कि 1990 तक दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएँ लगभग समान ही थीं। फिर अब ऐसा क्यो नहीं हो सकता?
Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.
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