रूस द्वारा आयोजित कजान ब्रिक्स शिखर सम्मेलन 2024 ने तस्वीर का एक नया रूख पेश किया, जो आज तक चले आ रहे कयासों से पूरी तरह से अलहदा नजर आ रहा है। कज़ान में दोनों नेताओं के एक खुशनुमा माहौल में औपचारिक हाथ मिलाने से जो संकेत जो मिला, उसे देख कर लग रहा है कि भारत और चीन अपने संबंधों के अगले चरण में आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं।

भारत और चीन अपनी साझा हिमालयी सीमा पर गश्त करने के लिए एक समझौते पर आखिकार पहुँच ही गए हैं। सीमा समझौता पर मनमुटाव दूर करने की बात दोनों पक्षों के राजनयिक और सैन्य वार्ताकारों के बीच हफ्तों की गहन बातचीत के बाद तय हुआ। दोनों पक्ष सीमा को लेकर प्रासंगिक मामले पर एक समाधान पर पहुँच गए हैं, जिसे चीन अनुकूल मान रहा है और भारत भी आगे बढ़कर इसका स्वागत कर रहा है। इस समझौते की रूपरेखा बनने से पूर्व भी शी और मोदी 2023 में जोहान्सबर्ग में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान भी एक बैठक कर चुके है, जहां इन नेताओं नेस्पष्ट और गहन विचारों का आदान-प्रदानभी किया, लेकिन यह उस वक्त साफ नजर रहा था कि दोनों पक्ष एक मत नहीं थे। इसीलिए उस समय जारी किए गए आधिकारिक बयानों ने उक्त बैठक की अलग-अलग व्याख्याएँ नजर आई थी। लेकिन रूस द्वारा आयोजित कजान ब्रिक्स शिखर सम्मेलन 2024 ने तस्वीर का एक नया रूख पेश किया, जो आज तक चले रहे कयासों से पूरी तरह से अलहदा नजर रहा है। कज़ान में दोनों नेताओं के एक खुशनुमा माहौल में औपचारिक हाथ मिलाने से जो संकेत जो मिला, उसे देख कर लग रहा है कि भारत और चीन अपने संबंधों के अगले चरण में आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं।

जाहिर है, भारत और चीन के बीच किसी भी तरह की नरमी का माहौल बन जाने पर वैश्विक भूराजनीति भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगी। भारत पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया का केन्द्र बिंदु है। चीन के विरूद्ध अमेरिका की दिलचस्पी का केन्द्र भारत है तो पश्चिम विरोधी रूस भी चीन की दोस्ती निभाने में भारत के महत्व को नहीं भूलता। अमेरिका जहां बीजिंग के प्रति संतुलन का भाव बनाये रखने के लिए भारत की ओर देखता है वही दक्षिण एशियाई देश भारत की भूराजनीति पर दिलचस्पी बनाये रखते है।  चीन, ब्रिक्स मेंग्लोबल साउथके लिए एकजुटता के माध्यम से अपनी ताकत को बढ़ाकर साउथ ईस्ट एशिया में खुद को देखने की इच्छा रखता है। उसकी ये मंशा चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के इस बयान में साफ हो जाती है, जो कहते है कि चीन अन्य पक्षों के साथ मिलकर ब्रिक्स सहयोग के स्थिर एवं सतत विकास के वास्ते प्रयास करने तथाग्लोबल साउथके लिए एकजुटता के माध्यम से शक्ति प्राप्त करने और संयुक्त रूप से विश्व शांति एवं विकास को बढ़ावा के लिए एक नए युग के द्वार खोलने के लिए तैयार है।ग्लोबल साउथशब्द का उपयोग आर्थिक रूप से कम विकसित देशों या विकासशील देशों को संदर्भित करने के लिए आम तौर पर किया जाता रहा है। इन देशों में खासकर एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका जैसे देश आते हैं।

 

व्यवहारिक तौर से सलामी-स्लाइसिंग रणनीति का आदी रहा चीन

ऐतिहासिक रूप से, चीन कोसलामी-स्लाइसिंग’ रणनीति के तहत काम करने के लिए जाना जाता है, जो समझौते तो सहयोग की नीति के रूप में करता है, लेकिन अपने दावों को क्रमिक रूप से ही आगे बढ़ाता है। यह अस्पष्टता नये समझौतों संदेह का कारण बनती है और सवाल खड़ा करती है कि क्या नवीनतम समझौता शांति की दिशा में एक वास्तविक कदम होगा या ये एक बार फिर भारत को महज संतुष्ट करने करने का एक सामरिक कदम भर है। दरअसल अभी तक चीन अक्सर अपने बयानों को लेकर कम पारदर्शी रहा है, जो बीजिंग के वास्तविक इरादों पर सवाल उठाता है। इसलिए सोचने वाले तो ये भी सोच रहे कि बढ़ते तनाव के बीच कहीं ये एक अस्थायी शांति की नुमाइश हो। संदेह का आलम ये है कि भारतीय इसे चीन द्वारा, सीमा पर अपनी स्थिति को मजबूत करने और आगे के बुनियादी ढांचे का निर्माण करने हेतु, समय खरीदना मान रहे है। इस तरह के विश्वास की कमी भारतीय क्षेत्रों में दीर्घकालिक स्थिरता प्राप्त करने में एक बुनियादी बाधा बनी हुई है। आम राय को सुना जाये तो सभी भारत को कूटनीतिक प्रगति पर नजर बनाये रखने के साथ-साथ सतर्क और चौकस रहने की भी हिदायत करती है।

भूराजनैतिक संबंधों में प्रगति की इस घोषणा के बावजूद भारत के लिए चिंता का विषय पूर्व के समझौते है जिनके मामले मे चीन अक्सर कम पारदर्शी नजर आया है और यह बात बीजिंग के वास्तविक इरादों पर सवाल उठाने से भारत और भारतीयों की सोच को रोक नहीं पा रही। हालांकि अपने नरम मिजाज के चलते नई दिल्ली इन संबंधों को कुछ और वक्त देने से पीछे भी नहीं हटना चाहती। गश्त व्यवस्था पर भारत और चीन के बीच हुए समझौते को सावधानी से अपनाने की जरूरत है। जमीनी हकीकत से इसकी पहली परीक्षा होगी। अगर यह समझौता जमीनी तौर पर भी खरा उतरता है, तो नि-संदेह ये निरंतर कूटनीतिक प्रयासों की सफलता और आगे के सैन्य टकरावों से बचने में साझा हित को दर्शा सकता है।मैकेनाइज्ड फोर्सेज के पूर्व महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल एबी शिवाने अपने एक लेख में इसी संदेहास्पद स्थिति पर सलाह देते हुए कहते है कि बावजूद इसके कि भारतीय रक्षा बल चीनी लोगों की किसी भी गलतफहमियों को रोकने और देश की क्षेत्रीय अखंडता सुनिश्चित करने के लिए पूरी तरह तैयार रहता हैं, फिर भी चीनी गिरगिट संस्कृति को देखते हुए भारत के लिए यह समझदारी होगी कि वह किसी भी तरह की लापरवाही अपने पड़़ोसी को लेकर बरते।

गौर करने वाली है कि यह मौजूदा समझौता केवल देपसांग और डेमचोक के लिए है।  समझौते में कुछेक बातें पूरी तरह से साफ नहीं है जैसे विघटन प्रक्रिया में शामिल सैनिकों की संख्या बल का तय होना और ही फिलहाल यह साफ है कि कितने प्रतिशत सैनिकों को हटाया जाना है। सूत्रों के अनुसार यह एक गतिशील प्रक्रिया है, अभी से इस पर निश्चित तौर से कुछ नहीं कहा जा सकता। दरअसल पूर्व के समझौतों के कागजी किस्से से ज्यादा हर कोई ़जमीनी तौर पर दिखाई देने वाली गतिविधियों पर भरोसा करना चाहता है। जैसा कि सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी का कहना है कि दोनों सेनाओं की पहली प्राथमिकता बफर ज़ोन मेंघुसपैठ करकेएक-दूसरे मेंविश्वास बहाल करनाहोगा, “अप्रैल 2020 की यथास्थिति पर वापस जानाऔर फिर एलएसी केविघटन, डी-एस्केलेशन, सामान्य प्रबंधनपर विचार करना होगा। गश्त करने से आपको इस तरह का लाभ मिलता है और जैसे-जैसे हम विश्वास बहाल करेंगे, अन्य चरण भी आगे बढ़ेंगे।

 

भारत चीन के बीच सीमा-गश्त समझौता विशेषज्ञों की राय में

आपको अगर याद हो तो इस साल की शुरुआत में जारी आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 में निर्यात को बढ़ावा देने और चीन के साथ बढ़ते द्विपक्षीय व्यापार घाटे को संबोधित करने के लिए चीन से अधिक एफडीआई प्रवाह का मामला दृष्टिगोचर हुआ था। इस गश्त समझौते से व्यापार संबंधों में सुधार की बहुत संभावना नहीं दिखाई देती। इसके लिए लंबे समय तक के नीति संशोधन की आवश्यकता होगी, लेकिन बावजूद इस बात पर यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि इस समझौते से ऐसी संभावना के लिए द्वार खुलेंगे जो भविष्य में वैश्विक दृष्टिकोण से दोनों देशों के लिए लाभकारी साबित हो सकते है, बशर्ते मंशा ईमानदार हो।

इस संदर्भ में भारत चीन मामलों के जानकार और कलिंगा इंस्टिट्यूट में इंडो-पैसिफ़िक स्टडीज़ के फ़ाउंडर और चेयरमैन प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्र के विचारों पर गौर करे तो वे इसे एक अच्छी शुरुआत मानते है। उनके अनुसार पिछले कुछ महीनों में कूटनीतिक और सैन्य स्तर पर जो वार्ताएं हुई हैं, ये उसका ही नतीजा है कि तनाव कम करने पर एक समझौते की बात सामने आई। लेकिन वे यह भी मानते है कि सिर्फ एक समझौते से दोनों देशों के बीच सारे तनाव काफूर हो जाएंगे ऐसा तो नहीं हो सकता। मगर रिश्तों के सामान्य होने की प्रक्रिया में यह एक पहला कदम माना जा सकता है। उनके नजरिए से अभी समझौताडिसएंगेजमेंटहुआ है, जिसका मतलब है कि कुछ इलाक़े में ये हो चुका है और कुछ इलाक़ों में ये होना बाकी है।

ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट में सीनियर फ़ेलो तनवी मदान ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर लिखते है कि 2017 में डोकलाम संकट भी ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से पहले हल हो गया था और उस वक्त भी इसने पीएम मोदी के चीन दौरे का रास्ता बनाया था। उस समय भी भारत-चीन कुछ भूराजनीतिक समस्याओं का सामना कर रहा था। तक्षशिला इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर नितिन पाई भी एक्स पर लिखते है कि भारत चीन सीमा पर शांति लाने के लिए कुछ समझौता हुआ है। लेकिन अभी से जश्न मनाएं, क्योंकि बीजिंग की नीतियों में ऐसा कुछ नहीं दिखता जिससे पता चले कि उसके आक्रामक रुख़ में बदलाव गया है। उनके अनुसार विदेश सचिव विक्रम मिस्री के बयान में सिर्फ इतना ही कहा है कि डिसएंगेजमेंट पर समझौता हुआ है। उसमें ये साफ़ नहीं है कि विवाद के बाकी बिंदुओं पर इस समझौते का क्या असर पड़ेगा। हालांकि विदेश मंत्री जयशंकर ने देपसांग का ज़िक्र करते हुए कहा कि अन्य इलाक़ों में भी पेट्रोलिंग होगी। प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्र का कहना है कि ऐसा लगता है कि जो ताज़ा एलान हुआ है उसमें कई मुद्दों पर सहमति बनी है। उनके अनुसार, यह भारत-चीन के साथ प्रशांत क्षेत्र के लिए भी बहुत अच्छी ख़बर है।

 

वैश्विक नजरिए से समझौते की टाइमिंग भी गौरतलब है

पीएम मोदी और शी जिनपिंग के बीच, अगस्त 2023 में दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में हुई ब्रिक्स की बैठक के दौरान हुई बातचीत से पहले 2022 में जी20 देशों के सम्मेलन में भी दोनों नेता पहुंचे थे लेकिन उस वक्त उनके बीच द्विपक्षीय वार्ता का अवसर नहीं बन सका। तेजी से परिवर्तित होती विश्व भू राजनीति में हाल के बरसों में चीन और पश्चिमी देशों के बीच संबंध उतने सहज नहीं रहे हैं। शिव नादर यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर और चीनी मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर जबिन टी जैकब बीबीसी हिंदी को दिये गयो एक साक्षात्कार में कहते है कि, भारत के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की पहल के पीछे कुछ हद तक चीन की परिस्थितियां भी ज़िम्मेदार हैं। चीन का अमेरिका के साथ संबंध बहुत ख़राब दौर में है और अगले महीने अमेरिका में चुनाव भी हैं। उनका मानना है कि चीन ये मान चुका है कि अमेरिका का अगला राष्ट्रपति चाहे जो भी हो, उसके साथ रिश्तों पर कुछ भी फर्क नहीं पड़ने वाला है। यूक्रेन जंग के दौरान रूस के साथ असीमित सहयोग के समझौते से भी चीन और पश्चिमी देशों में टकराव बढ़ रहा है। देखा जाए तो चीन इस समय अंतरारष्ट्रीय स्तर पर मुश्किल में है और घरेलू स्तर पर भी उसकी आर्थिक प्रगति धीमी बनी हुई है। ऐसे में चीन को अपनी विदेश नीति में थोड़ी बहुत फेरबदल करने की ज़रूरत के साथ-साथ थोड़ा लचीला रुख़ दिखाना भी ज़रूरी है।

इस समझौतें की टाइमिंग भी गौरतलब है। विशेषज्ञों का मानना है इस समझौते की घोषणा अचानक ही नहीं की गई। दोनों देशों के बीच अधिकारी स्तर पर पहले कई वार्ताओं के दौर चले। आपसी समझ बैठने के बाद इसकी घोषणा के लिए परफेक्ट टाइमिग का इंतजार किया जा रहा था। ब्रिक्स सम्मेलन इसके लिए मुफीद मौका था। एक तो सम्मेलन रूस में था, फिर रूसी राष्टपति ब्लादीमीर पुतिन का भारत के प्रति नरम रूख सर्वविदित है। चीनी नेता से उनकी दोस्ती भी जगजाहिर है। कहीं कहीं अपने दोनों दोस्तों के प्रति सद्भाव की भावना ही रूसी राष्टपति को नेपथ्य में अपनी अग्रणी भूमिका निभाने को बाध्य की हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन के उद्घाटन से एक दिन पहले की गई इस घोषणा ने आपसी संबंधों में जमी बर्फ को थोड़ा सा पिघलने में मदद की। भारतीय व्यापार लॉबी का दबाव ने भी भारत सरकार को चीन के साथ समझौता करने के लिए मजबूर करने में अग्रणी निर्णायक भूमिका निभाई। इसकी वजह से भारतीय कंपनियाँ का चीनी विनिर्माण आपूर्ति श्रृंखलाओं और प्रौद्योगिकी पर बहुत अधिक निर्भर होना हैं।

 

निष्कर्ष

इस समझौते से सरकी घंुध की चादर अगर सही मंशा के साथ हटती चली जायेगी तो निकट भविष्य में दोनों देश आर्थिक ही नहीं विश्व परिदृश्य में उन्नति के शिखर पर साथ-साथ आगे बढ़ते जायेगें। फिलहाल अभी ये बात स्पष्ट नहीं की गई है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गश्त किस तरह से की जाएगी। दोनों देशों के बीच 2,100 मील की सीमा है, जो 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध के बाद खींची गई थी।

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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